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मठ तथा महत्त
५०१ किये। संन्यासियों एवं फक़ीरों ने बंगाल प्रान्त को छोप- सा लिया। ब्रिटिश शासन के आरम्भिक दिनों में ( १८वीं शताब्दी के द्वितीय चरण में) ^ उनके आक्रमणों एवं उपद्रवों ने बंगाल को परेशान एवं तबाह कर रखा था। इससे हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार संन्यासियों का अहिंसा नामक प्रबल सूत्र कालान्तर में बदल गया ।
संन्यासी एवं उनके दाय- सम्वन्धी अधिकार
प्राचीन एवं आधुनिक हिन्दू क़ानूनों के अनुसार संन्यासी हो जाने पर व्यक्ति का अपने परिवार, सम्पत्ति एवं यसीयत से विच्छेद हो जाता है (वसिष्टधर्मसूत्र १७।५२) । किन्तु यह परिणाम केवल गेरुआ धारण मात्र से ही नहीं होता प्रत्युत उसके लिए ( संन्यास - धारण के लिए) आवश्यक कृत्य सम्पादित करने पड़ते हैं। इसी प्रकार संन्यासी की सम्पत्ति ( यथा -- वस्त्र, खड़ामू, पुस्तकें आदि ) उसके घर वालों को नहीं, प्रत्युत उसके शिष्य या शिष्यों को प्राप्त होती हैं (देखिए याज्ञवल्क्य २।१३७ एवं उसी पर मिताक्षरा ) । यदि कोई शूद्र संन्यासी हो जाय तो ये नियम उस पर नहीं लागू होते थे ।
आदर्श-च्युत संन्यासी एवं घरबारी गोसाईं
संन्यास के आदर्श पर भयंकर कुठाराघात पड़ा उस छूट से जिसमें संन्यासी लोगों को स्त्री या रखैल रखने की आज्ञा मिल गयी । तिधर्मसंग्रह ( पृ० १०८ ) में उद्धृत वायुपुराण के कथन से पता चलता है कि जो व्यक्ति संन्यासी होने के उपरान्त मैथुन करता है, वह ६०,००० वर्षों तक नाबदान का कीड़ा बना रहता है और उसके उपरान्त चूहे, गिद्ध, कुत्ते, बन्दर, सूअर, पेड़, पुष्प, फल, प्रेत की योनियों को पार करता हुआ चाण्डाल के रूप में जन्म लेता है। राजतरंगिणी ( ३११२) का कहना है कि मेघवाहन की रानी द्वारा निर्मित मठ के एक भाग में नियमों के अनुसार चलने वाले संन्यासी रहते थे और दूसरे भाग में वैसे अनियमित संन्यासी रहते थे, जिनके साथ उनकी पत्नियाँ, धन-सम्पत्ति एवं पशु आदि थे ( अर्थात् दूसरे भाग में गृहस्थ संन्यासी रहते थे) । ऐसे संन्यासियों को, जो गृहस्थ रूप में रहते हैं, घरबारी गोसाईं कहते हैं । बम्बई प्रान्त में उन्हें घरभारी गोसावी कहा जाता है।
संन्यास एवं नृपति-परिव्राजक
कुछ गुप्त अभिलेखों से पता चलता है कि गुप्त सम्राटों के सामन्तों में कुछ ऐसे राजा थे जिनकी उपाधि थी नृपति-परिव्राजक, अर्थात् राजकीय संन्यासी । डा० फ्लीट (गुप्ताभिलेख, पृ० ९५, पादटिप्पणी १) ने इस उपाधि को 'राजर्षि' नामक उपाधि के समकक्ष रखा है। किन्तु यह बात जँचती नहीं । नृपति-परिव्राजकों का गोत्र था भरद्वाज और उनके संस्थापक कपिल के अवतार माने जाते थे ( पृ० ११५ ) । हो सकता है कि कुल के संस्थापक महोदय राज्य करने के उपरान्त बुढ़ौती में परिव्राजक हो गये हों और उनके वंशज लोग भी उसी परम्परा में राज्य करने के उपरान्त संन्यासी होते गये हों। इसी से सम्भवतः उन्हें नृपति-परिव्राजक कहा जाता था । स्मृतिमुक्ताफल ( पृ० १७६ ) में
'उद्धृत व्यास एवं यतिधर्मसंग्रह के मत से कलियुग में संन्यास वर्जित है, किन्तु उनके मत से यह भी प्रकट होता है कि जब तक वर्णाश्रमधर्म की परम्परा चलती रहेगी, संन्यास की परम्परा कलियुग में भी मान्य रहेगी। अपने व्रात्यता
८. बेलिए राय साहब यामिनीमोहन घोष द्वारा लिखित (१९३०) ग्रन्थ Sannyasi and Fakir raiders in Bengal.
९. व्यासः । अग्न्याधेयं गवालम्भं संन्यासं पल्यंतुकम् । बेबरेन सुतोत्पत्ति कलौ पञ्च विवर्जयेत् ॥ इति ।
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