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शिष्ट-परिषद् और धर्मनिर्णय
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भेद रहा है । जाबालोपनिषद् (५) के उल्लेख के अनुसार जब अत्रि ने याज्ञवल्क्य से पूछा कि संन्यासी हो जाने पर जब व्यक्ति अपने जनेऊ का त्याग कर देता है तो वह ब्राह्मण कैसे कहला सकता है, तब याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि संन्यासी की आत्मा ही उसका जनेऊ (यज्ञोपवीत) है । जाबालोपनिषद् (६) में यह भी आया है कि परमहंस को जल में अपने तीनों दण्डों, कमण्डलु, शिक्य, भिक्षापात्र, जल छाननेवाले वस्त्र खण्ड, शिखा एवं यज्ञोपवीत को छोड़ देना चाहिए और आत्मा की खोज में लगा रहना चाहिए । यही बात आरुणिकोपनिषद् (२) में मी पायी जाती है। शंकराचार्य बृहदारण्यकोपनिषद् ( २/५1१ ) के भाष्य में दोनों पक्षों की बातें कहते हुए अन्त में अपना मत देते हैं कि यज्ञोपवीत एवं शिखा का परित्याग हो जाना चाहिए। यही बात विश्वरूप (याज्ञवल्क्य ३।६६) ने भी कही है। किन्तु वृद्ध- हारीत ( ८1५७) का कहना है- “यदि संन्यासी ब्रह्मकर्म अर्थात् शिखा एवं जनेऊ का परित्याग कर देता है तो वह जीते-जी चाण्डाल हो जाता है और मृत्यु के पश्चात् कुत्ते का जन्म पाता है।" जीवन्मुक्तिविवेक ( पृ० ६) एवं पराशरमाघवीय (१२, पृ० १६४ ) ने इस उक्ति का विवेचन उपस्थित कर अन्त में शंकराचार्य की बात दोहरायी है। यही बात मिताक्षरा (याश ० ३।५८ ) में भी पायी जाती है। आजकल के संन्यासी शिखा एवं जनेऊ नहीं धारण करते ।
संन्यास एवं कुछ विशिष्ट नियम
संन्यासियों के आह्निक कृत्यों के विषय में कुछ विशिष्ट नियम निर्मित हैं ( यतिधर्मसंग्रह, पृ० ९५ ) । उनको शौच, दन्तधावन, स्नान आदि गृहस्थों की भाँति ही करना चाहिए। मनु (५।१३७, वसिष्ठधर्मसूत्र ४ १९, विष्णुधर्मसूत्र ६०।२६, शंख १६।२३-२४) का कहना है कि वानप्रस्थों एवं संन्यासियों को गृहस्थों के समान ही क्रम से तीन एवं चार बार शौच कर्म ( शरीर-शुद्धि) करना चाहिए। भोजन केवल एक बार और वह भी केवल ८ ग्रास खाना चाहिए। संन्यासियों को पुरुषोत्तम ( चार स्वरूपों के साथ वासुदेव), व्यास ( सुमन्तु, जैमिनि, वैशम्पायन एवं पैल नामक चार शिष्यों के साथ), भाष्यकार शंकर (चारों शिष्यों अर्थात् पद्मपाद, हस्तामलक, त्रोटक एवं सुरेश्वर के साथ) आदि की पूजा करनी चाहिए। आदर-सम्मान के आदान-प्रदान के विषय में भी कुछ नियम बने हैं। संन्यासी को चाहिए कि वह देवों एवं अपने से बड़े संन्यासियों को, जो नियमानुकूल अपने मार्ग पर चलते हों, नमस्कार करे, किन्तु किसी गृहस्थ को, चाहे वह आचारवान् एवं विचारवान् ही क्यों न हो, नमस्कार नहीं करना चाहिए। यदि उसे कोई नमस्कार करे तो उसे केवल 'नारायण' कहना चाहिए, न कि आशीर्वाद देना चाहिए। जब संन्यासी मर जाय ( यहाँ तक कि वह भी जिसने मृत्यु - शय्या पर ही संन्यास ग्रहण किया हो ) तो उसे जलाना नहीं चाहिए बल्कि पृथिवी में गाड़ देना चाहिए । यति की मृत्यु पर रोदन आदि नहीं करना चाहिए और न श्राद्ध ही करना चाहिए, केवल ११वें दिन पार्वण कर देना चाहिए ( अपरार्क पृ० ५३८ ) । यदि संन्यासी अपने पुत्र की मृत्यु या किसी सम्बन्धी की मृत्यु का समाचार सुने तो वह अपवित्र नहीं होता, और न उसे स्नान ही करना चाहिए, किन्तु माता या पिता की मृत्यु सुनकर वह स्नान अवश्य करता है, किन्तु विलाप नहीं करता ।
परिषद्, शिष्ट और धर्मनिर्णय
धर्मशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार राजा न केवल पौर एवं जनपद के शासन का मुख्याधिकारी है, प्रत्युत वह न्याय का प्रमुख स्रोत है। राजा धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं का सयमनकर्ता एवं रक्षक है। वह जनता को धर्म में नियोजित करता है एवं धार्मिक तथा आध्यात्मिक उल्लंघनों पर दण्ड देता है। संक्षेप में, वह धर्म का रक्षक है ( गौतम ११1९११, विष्णुधर्मसूत्र ३२- ३, नारद, प्रकीर्णक ५/७ याज्ञवल्क्य ११३३७ एवं ३५९, अत्रि १७ - २०, मनु ७।१३ ) । किन्तु राजा धार्मिक एवं आध्यात्मिक बातें स्वतः नहीं तय करता था, प्रत्युत वह पुरोहित एवं मन्त्रियों की सम्मति एवं विद्वान् लोगों की सभाओं अर्थात् परिषद् की राय से ही करता था। जब कभी कोई धार्मिक या प्रायश्चित्त-सम्बन्धी या पतित
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