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संन्यासी के कर्तव्य
ब्राह्मण संन्यासी को शूद्र के घर में भोजन नहीं करना चाहिए, और अपरार्क (पृ० ९६३) की व्याख्या के अनुसार ब्राह्मण
हस्थ के घर के अभाव में क्षत्रिय या वैश्य के यहाँ भोजन करना चाहिए। आगे चलकर हर किसी के घर में भिक्षाटन करना कलिवयं मान लिया गया (यतेस्तु मर्ववर्णेषु न भिक्षाचरणं कलौ)। देखिए, स्मृतिमुक्ताफल (पृ. २०१)। पराशर एवं क्रतु ने बुढ़े एवं रुग्ण संन्यासी के लिए छूट दो है, वह एक दिन या कई दिनों तक एक ही व्यक्ति के यहाँ भोजन कर सकता है या अपने पुत्रों, मित्रों, आचार्य, भाइयों या पत्नी के यहाँ खा सकता है (स्मृतिसुक्ताफल, पृ० २०१, यतिधर्मसंग्रह, पृ० ७५) । पराशर (११५१) एवं सूतमंहिता (ज्ञान-योग खण्ड, ४।१५-१६) के मत से घर में भोजन करने का प्रथम अधिकार है मन्यामी एवं ब्रह्मचारी का, यदि कोई व्यक्ति बिना उन्हे भिक्षा दिये खा लेता है तो उसे चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। संन्यासी को भोजन देने के पूर्व उसके हाथ पर जल छोड़ा जाता है और भोजन देने के उपरान्त पुनः जल छोला जाता है (हरदत्त द्वारा गौतम ५११६ की व्याख्या में उद्धृत पराशर ११५३, आपस्तम्बधर्मसूत्र २।२।४।१० एव याज्ञवल्क्य १११०७)।
(९) संन्यासी को संध्या समय भिक्षा मांगनी चाहिए, जब कि रसोईघर से घूम का निकलना बन्द हो चुका हो, अग्नि बुझ चुकी हो, बरतन आदि अलग रख दिये गये हों (मनु ६।५६, याज० ३,५९, वसिष्ठ १०८ एवं शंख ७१२) । उसे मांस एवं मधु नहीं ग्रहण करना चाहिए (वमिष्ठ १०।२४) । मनु (६।५०-५१) के मत से संन्यासी को न तो भविष्यवाणी करके, शकुनाशकुन बताकर, ज्योतिष का प्रयोग करके, विद्या, ज्ञान आदि के सिद्धान्तों का उद्घाटन करके और न विवेचन आदि करके भिक्षा माँगने का प्रयत्न करना चाहिए: उसे ऐसे घर में भी नहीं जाना चाहिए जहां पहले से ही यति लोग. ब्राह्मण, पक्षी एवं कुत्ते, भिखारी या अन्य लोग आ गये हों।
(१०) संन्यासी को भरपेट भोजन नहीं करना चाहिए, उसे केवल उतना ही पाना चाहिए जिससे वह अपने शरीर एवं आत्मा को एक साथ रख सके, उसे अधिक पाने पर न तो सन्तोष या प्रसन्नता प्रकट करनी चाहिए और न कम मिलने पर निराशा (मनु ६।५७ एवं ५९, वसिष्ठ १०।२१-२२ एवं २५ याज्ञ० ३।५९)। कहा भी गया है; संन्यासी (यति) को ८ ग्रास, वानप्रस्थ को १६ ग्रास, गृहस्थ को ३२ ग्रास तथा ब्रह्मचारी को जितना चाहे उतना खाना चाहिए (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।४।९।१३ एवं बौधायनधर्मसूत्र २।१०।६८)।
(११) संन्यासी को अपने पास कुछ भी एकत्र नहीं करना चाहिए, उसके पास केवल जीर्ण-शीर्ण परिधान. जलपात्र एवं भिक्षापात्र होना चाहिए (मनु ४।४३-४४, गौतम ३।१०, वसिष्ठ १०१६)। देवल (मिताक्षरा द्वारा उद्धृत, याज्ञ० ३।५८) के मत से उसके पास केवल जल-पात्र, पवित्र (जल छानने के लिए वस्त्र), पादुका, आसन एवं कन्था (अति जाड़े से बचने के लिए कथरी) होनी चाहिए। महाभारत (वेदान्तकल्पतर-परिगल पृ० ६३९ में उद्धृत) में आया है कि कापाय धारण, मोण्ड्य, कमण्डल, जलपात्र एवं त्रिविष्टब्ध से भोजन की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति नहीं। महाभाष्य ने (जिल्द १, पृ० ३६५, पाणिनि २॥१११ की व्याख्या में) घोषित किया है कि त्रिविष्टब्यक (विदा?) से ही किसी को परिव्राजक समझा जा सकता है। वायुपुराण (११८) ने उन सामग्रियों के नाम दिये हैं, जिन्हें संन्यासी अपने पास रख सकता है (अपरार्क, पृ० ९४९-९५० में उद्धृत)।
३. काषायपारणं मौण्ड्यं त्रिविष्टब्धं कमण्डलु। लिङ्गान्यन्नार्यमेतानि न मोक्षायेति मे मतिः॥ वेदान्तसूत्र ३॥४॥१८ को स्थास्या में वेदान्तकल्पतरुपरिमल (पृ० ६३९) द्वारा उद्धृत महाभारत का एक अंश, जिसमें जनक एवं सुलभा की बातचीत का वर्णन है। 'त्रिविष्टब्धकं च दृष्ट्वा परिवाजक इति।' महाभाष्य, जिल्द १, पृ० ३६५ (पाणिनि २०११)।
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