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मनुष्ययज्ञ या अतिथिसत्कार
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बहुत-से अतिथियों का सत्कार करने में असमर्थ हो तो उसे क्रम से श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न व्यक्ति का, या प्रथम आनेवाले का, या श्रोत्रिय ( वेदज्ञ) का सत्कार करना चाहिए (बौधायनधर्मसूत्र २।३।१५ - १८ ) ।
पराशर ( १०४६-४७ ) का कहना है कि ब्रह्मचारी तथा यति को सत्कार में प्रमुखता मिलती है । इन्हें बिना भोजन दिये खा लेने पर चान्द्रायण प्रायश्चित्त करने पर ही छुटकारा मिलता है। यदि कोई यति घर आये तो उसे जल, भोजन और पुन: जल देना चाहिए। ऐसा करने से भोजन मेरु पर्वत के समान तथा जल समुद्र के समान हो जाता है । यति के अतिथि सत्कार का माहात्म्य अपने ढंग का होता है। यदि गृहस्थ के घर यति एक दिन भी ठहर जाय तो उसके सारे पाप कट जाते हैं। इसी प्रकार कहा गया है कि यति का ठहरता स्वयं विष्णु
ठहरना है (लघु-विष्णु २।१२- १४, दक्ष ७।४२-४४ एवं वृद्ध हारीत ८।८९ ) ।
यदि कुछ अतिथियों के खा लेने पर अन्य अतिथि आ जायँ तो पुनः भोजन बनवाना चाहिए, किन्तु इस बार वैश्वदेव एवं बलिहरण आवश्यक नहीं है ( मनु ३ । १०५ एवं १०८ ) । अतिथि से पूर्व खा लेने पर घर की सम्पत्ति, सन्तान, पशु एवं पुण्य नष्ट हो जाते हैं ( आपस्तम्बधर्मसूत्र २।३।७ | ३ ) | मनु ( ३।११४, विष्णुधर्मसूत्र ६७१३९ ) के मत से नवविवाहित पुत्रियों एवं बहिनों, अविवाहित कन्याओं, रोगियों एवं गर्भवती नारियों को अतिथियों से पूर्व खिला देना चाहिए, किन्तु गौतम (५१२३ ) ने उन्हें अतिथि के खिलाने के समय ही खिलाने को कहा है। मनु (३।११३, ११६-११८), विष्णुधर्मसूत्र (६७१३८-४३), याज्ञवल्क्य ( १।१०५, १०८), आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २/४ | ९|१०), बौधा-यनधर्मसूत्र ( २।३।१९ ) के मत से गृहस्थ तथा उसकी पत्नी को चाहिए कि वे मित्रों, सम्बन्धियों एवं नौकरों को खिलाकर ही स्वयं खायें, उन्हें अतिथियों आदि को खिलाने के लिए नौकरों के भोजन में कटौती नहीं करनी चाहिए । जो अन्य लोगों की परवाह न करके स्वयं खाता है, वह केवल अपने पापों को निगलता है, किन्तु जो देवताओं, प्राणियों, पितरों एवं अतिथियों को खिलाकर खाता है, वही वास्तविक रूप से खाता है । मनु ( ३।२८५, वनपर्व २६० ) ने लिखा है कि ब्राह्मणों एवं अतिथियों के खा लेने के उपरान्त जो शेष रहता है, उसे विघस तथा यज्ञ करने के उपरान्त जो शेष रहता है, उसे अमृत कहते हैं, और इन्हें ही खाना चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र ( २।३।६८ एवं २१ - २२ ) का कहना है - सभी लोग भोजन पर निर्भर रहते हैं, वेद के अनुसार भोजन जीवन (प्राण) है, अतः भोजन देना चाहिए, क्योंकि वह सर्वोत्तम हवि है, बिना किसी अन्य व्यक्ति को दिये भोजन नहीं करना चाहिए ।"
आपस्तम्ब धर्मसूत्र ( २/४/९/२ - ४ ) का कहना है कि अतिथि के लौटते समय आतिथ्यकर्ता को अतिथि की सवारी (गाड़ी) तक जाना चाहिए, यदि सवारी न हो तो वहाँ तक जाना चाहिए जहाँ अतिथि लौटने को कह दे, किन्तु
पृथिवीमिमाम् । तस्मादतिथिमायान्तमभिगच्छेत् कृताञ्जलिः ॥ वायुपुराण ७११७४; ; योगिनो विविषैर्वषैर्भ्रमन्ति धरणीतले । नराणामुपकाराय ते चाज्ञातस्वरूपिणः । तस्मादभ्यर्चयेत्प्राप्तं श्राद्धकालेऽतिथि द्विजः ॥ बृहत्पराशर ( पृ० ९९ ) ।
९. यतिर्यस्य गृहे भुंक्ते तस्य भुंक्ते हरिः स्वयम् । वृद्धहारीत ८८९; संचितं यद् गृहस्थेन पापमामरणान्तिकम् । निर्वहत्येव तत्सर्वमेकरात्रोषितो यतिः ॥ वृक्ष ७१४३ ।
१०. अने श्रितानि भूतानि अनं प्राणमिति श्रुतिः । तस्मादन्नं प्रदातव्यमन्नं हि परमं हविः ॥ न त्वेव कदाचिदवत्वा भुञ्जीत । अथाप्यत्राह्मगीतौ श्लोकाबुदाहरन्ति । यो मामदत्वा पितृदेवताभ्यो भृत्यातिथीनां च सुहृज्जनस्य । संपन्नमश्नन्विवमसि मोहात्तमद्म्यहं तस्य च मृत्युरस्मि ॥ बौ० प० सू० २२३६८ २१-२२ । 'अनं प्राणः । ऐतरेय ब्राह्मण ३३।१ एवं 'अनं प्राणमसमपानमाहु:' ( तैत्तिरीय ब्राह्मण २राटा८ ) ।
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