Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 506
________________ बानप्रस्थ बाथम ४८५ उपरान्त या ग्रहस्थ रूप में कुछ वर्ष व्यतीत कर लेने के उपरान्त वानप्रस्थ हो सकता है। मनु (६२) के अनुसार 'जब गृहस्थ अपने शरीर पर मुरियां देखें, उसके बाल पक जायें, और जब उसके पुत्रों के पुत्र हो जाये तो उसे बन की राह लेनी चाहिए। इस विषय में टीकाकारों के विभिन्न मत हैं। कोई तीनों दशाओं (मुरियाँ, केश पक जाना, पौन उत्पन्न हो जाना)को, कोई इनमें किसी एक के उत्पन्न हो जाने को तथा कोई ५० वर्ष की अवस्था प्राप्त हो जाने को वानप्रस्थ बन जाने का उपयुक्त समय समझता है। कुल्लूक (मनु ३।५०) ने एक स्मृति का उद्धरण देकर ५० वर्ष की अवस्था को वानप्रस्थ के लिए उपयुक्त ठहराया है। वानप्रस्थ के नियम गौतम (३२२५-३४), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।९।२१।१८ एवं २।९।२३।२), बौधायनधर्मसूत्र (२३), वसिष्ठधर्मसूत्र (९), मनु (६।१-३२), याज्ञवल्क्य (३।४५-५५), विष्णुधर्मसूत्र (९५), वैखानस (१.५), शंसस्मृति (६।१-७), शान्तिपर्व (२४५।१-१४), अनुशासनपर्व (१४२), आश्वमेधिकपर्व (४६।९-१६), लघु-विष्णु (३), कूर्मपुराण (उत्तरार्ष, २७) आदि ने वानप्रस्थ के कतिपय नियमों का ब्यौरा दिया है। हम नीचे प्रमुख बातें (१) बन में अपनी पत्नी के साथ या उसे पुत्रों के आश्रय में छोड़कर जाना हो सकता है (मनु ६३ एवं यात. ३।४५)। यदि स्त्री चाहे तो साप जा सकती है। मेघातिथि ने टिप्पणी की है कि यदि पत्नी युवती हो तो वह पुत्रों के साब रह सकती है, किन्तु बूड़ी हो तो वह पति का अनुसरण कर सकती है। (२) वानप्रस्थ अपने साथ तीनों वैदिक अग्नियां, गणाग्नि तथा यज्ञ में काम आने वाले पात्र, यथा-पुरु सबमादि से लेता है। साधारणतः यज्ञों में पली का सहयोग आवश्यक माना जाता है, किन्तु जब वह अपने पुत्रों के साप रह सकती है, तो यहों में उसके सहयोग की बात नहीं भी उठायी जा सकती। वन में पहुंच जाने पर व्यक्ति को मनावस्या-पूर्णिमा के दिन श्रोत या करने चाहिए, यथा-आग्रयण इष्टि, चातुर्मास्य, तुरायण एवं दाक्षायण (मनु ।।४,९-१० एवं यामवल्क्य ३।४५)। यज्ञ के लिए भोजन वन में उत्पन्न होने वाले नीवार नामक अन्न से बनाना पाहिए। कुछ लोगों के अनुसार वानप्रस्थ को श्रोत एवं गृह्म अग्नियों का त्याग कर श्रामणक (अर्थात् वैखानस-सूत्र) ४. यदि व्यक्ति ने मावान डंग का अनुसरण किया है तो उसके पास मौत एवं गृह अग्गियां पृषक पर होती है। किन्तु यदि उसने सावान रंग स्वीकार किया है तो उसके पास केवल चौत अग्नियां होती , गौर यह पल राहीको साथ लेकर चलता है। जब कोई तीनों मौत मनियां जलाता है, तो यह अपनी स्मात मलिकामाचा मनसाप रख सकता है, इसी को अपना रंग कहा जाता है। जब कोई स्मात अग्नि पृषकम से नहीं रखता, तो उसे सांवलन कहा जाता है (देखिए मापस्तम्बमौतसूत्र ५-४०१२-१५ एवं ५७८ एवं निर्णयसिन्धुप, पूर्व, .७०)। परिव्यक्ति के पास मौत मनियां नहीं होती तो वह केवल गृह्माग्नि कर चलता है। जिसकी पल्ली परमवी होयह भी मानमत्व ग्रहण कर सकता है (मिताक्षरा, यार. ३४५)। बालायन नामक यस वर्ष पूर्णमास या परिमार्जन मात्र है (माप० पी० ॥१४ एवं ११, आश्वलायनमौत• २१७ ता कात्यायनी PRIM)। तुरावण तोमास. मी(२०१४-१) अनुसार सल्ययन तथा आपस्तम्ब० (२३॥११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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