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अध्याय २७
वानप्रस्थ
वानप्रस्थ एवं वैखानस 'वानप्रस्थ' के लिए प्राचीन काल में सम्भवत: 'वैखानस' शब्द प्रयुक्त होता था। ऋन्-अनुक्रमणी में १०० वैखानस ऋग्वेद ९।६६ के ऋषि कहे गये हैं, और ऋग्वेद १०/९९ के ऋषि है वन वैखानस । तैत्तिरीयारण्यक (१।२३) ने 'वैखानस' शब्द का सम्बन्ध प्रजापति के नखों से स्थापित किया है।" लगता है, अति प्राचीन काल में 'वैखानसशास्त्र' नामक कोई ग्रन्थ था, जिसमें वन के मुनियों के विषय में नियम लिखे हुए थे। गौतम (३२) ने वानप्रस्थ आश्रम के लिए 'वैखानस' शब्द का प्रयोग किया है। बौधायनधर्मसूत्र ( ३।६।१९ ) ने उसी को airप्रस्थ माना है जो वैखानस शास्त्र से अनुमोदित नियमों का पालन करता है।' वृद्ध-गौतम (अध्याय ८, १० ५६४ ) ने सम्भवतः वैष्णवों के दो सम्प्रदाय बताये हैं; वैज्ञानस एवं पाञ्चरात्रिक जिनमें प्रथम सम्प्रदाय ने विष्णु को पुरुष, अच्युत एवं अनिरुद्ध उपाधियों से पुकारा है तथा दूसरे सम्प्रदाय ने विष्णु को वासुदेव, संकर्षण, प्रचुम्न एवं अनिरुद्ध नामक चार मूर्तियों या व्यूहों वाला माना है। पराशरमाधवीय ( भाग २, पृ० १३९ ) ने वसिष्ठबर्मसूत्र ( ९/११) को उड़त करके (श्रामणकेनाग्निमाषाय) लिखा है कि 'श्रामणक' वह वैखानस सूत्र है जिसने तपस्वियों के कर्तव्यों का वर्णन किया है। कालिदास ने शाकुन्तल में कण्व ऋषि की पर्णकुटी में रहती हुई शकुन्तला के जीवन को वैज्ञामस-यत कहा है (११२७) । मनु (६।२१) ने वानप्रस्थ को वैखानस के मत के अनुसार चलने को कहा है और मेघातिथि ने वैखानस को ऐसा शास्त्र माना है जिसमें वन में रहने वाले मुनियों या यतियों (वानप्रस्थ) के कर्तव्यों का वर्णन हो । महाभारत (शान्तिपर्व २०१६ एवं २६।६ ) के अनुसार वैखानसों का विचार यह है-“धन के पीछे पड़ने की अपेक्षा धन एकत्र करने की इच्छा न रखना ही अच्छा है।" शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र भाष्य ( ३।४।२० ) में तीसरे आश्रम को वैखानस कहा है और छान्दोग्योपनिषद् ( २।२३।१ ) में प्रयुक्त 'तपस्' शब्द की ओर संकेत किया है।
मिताक्षरा ( शवल्क्य ३।४५ ) के अनुसार वानप्रस्थ शब्द वनप्रस्थ ही है, जिसका तात्पर्य है 'वह जो बन में सर्वोत्तम ढंग से ( जीवन के कठोर नियमों का पालन करते हुए) रहता है। किन्तु क्षीरस्वामी ने इसकी व्युत्पत्ति दूसरे ढंग से की है। '
वानप्रस्थ का काल
arrasser होने का समय दो प्रकार से होता है। जाबालोपनिषद् (४) के मत से कोई व्यक्ति छात्र-जीवन के
१. ये नलास्ते वैज्ञानसाः । ये वालास्ते बाललिस्थाः । तं० आ० १।२३ ।
२. वानप्रस्थो वैखानसशास्त्र समुदाचारः । बौ० घ० सू० २२६ १९ ।
३. वने प्रकर्षेण नियमेन च तिष्ठति चरतीति वनप्रस्थः वनप्रस्थ एवं वानप्रस्यः । संज्ञायां वैर्घ्यम् । मिताक्षरा
( याश० ३।४५) । क्षीरस्वामी ने दूसरे ढंग से कहा है- 'प्रतिष्ठन्ते अस्मिन् प्रस्यः धनप्रस्वे भयो मागग्रस्यः वैज्ञानसास्यः ।
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