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देवोतर सम्पत्ति
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को स्थानपति कहा गया है (श्रीरंगम् दान-पत्र, देखिए एपिफिया इण्डिका, जिल्द १८, पृ० १३८ ) । महाशिवगुप्त (८वीं या ९वीं शताब्दी) के सिरपुर प्रस्तर - शिलालेख से पता चलता है कि मन्दियों की सम्पत्ति के लेन-देन में राजा की आशा की कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। अपरार्क . ( पृ० ७४६ ) द्वारा उद्धृत पैठीनसि के कथन से ज्ञात होता है कि राजा को मन्दिरों एवं संस्थाओं की सम्पत्ति लेना वर्जित था। किन्तु मन्दिरों की सम्पत्ति से सम्बन्धित झगड़ों में राजा हस्तक्षेप करते थे और आगे चलकर अंग्रेजी सरकार ने पुराने राजाओं का हवाला देकर मंन्दिरों एवं मठों की सम्पत्तियों पर प्रबन्ध-सम्बन्धी दोष आदि मढ़कर हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया, और बहुत-से कानून बनाये । धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में देवता को दी गयी सम्पत्ति को देवोत्तर कहा जाता है।
मनु (९।२१९ ) ने अविभाज्य पदार्थों में योगलेम को परिगणित किया है। 'योगक्षेम' के कई अर्थ कहे गये हैं, किन्तु मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य २।११८-११९ ) ने इसे 'इष्ट' एवं 'पूर्त' के वर्ष में गिना है।" अतः मिताक्षरा ने ऐसा घोषित किया है कि किसी व्यक्ति द्वारा बाप-दादों की सम्पत्ति से बनवाये गये तड़ाग, आराम ( वाटिका) एवं मन्दिर आदि का दान अविभाज्य है, अर्थात् ये दान उस दानीय के पुत्रों एवं पौत्रों में बाँटे नहीं जा सकते। यही नियम आज तक रहा है। मन्दिरों तथा अन्य धार्मिक उपयोगों के लिए दी गयी सम्पत्ति भी साधारणतः अविच्छेद्य है । किन्तु स्वयं मन्दिरों तथा संस्थाओं के लाभ के लिए सम्पत्ति का हेर-फेर हो सकता है।
क्या उत्सर्ग की हुई वस्तु पर उत्सर्गकर्ता का कोई अधिकार पाया जाता है ? वीरमित्रोदय (व्यवहार) ने इस प्रश्न का उत्तर दिया है। जिस प्रकार अग्नि में आहुति डालने वाले का आहुति पर कोई अधिकार नहीं रहता, किन्तु वह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसे नष्ट किये जाते हुए नहीं देख सकता, प्रत्युत वह उसे अग्नि में भस्म हो जाते देखना चाहता है, उसी प्रकार उत्सर्गकर्ता अपनी उत्सर्ग की वस्तु पर कोई स्वामित्व नहीं रखता, किन्तु वह उस पर किसी तीसरे व्यक्ति का स्वामित्व नहीं देख सकता । उत्सर्गकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह उत्सर्ग की हुई वस्तु का जन-कल्याण के लिए सदुपयोग होने दे। इस कथन से स्पष्ट है कि दानी का इतना अधिकार है कि वह अपनी उत्सर्ग की हुई वस्तु को नष्ट होने से बचाता रहे।
प्रबन्धकर्ता या ट्रस्टी प्राचीन मूर्ति को हटा सकता है ? क्या वह नयी मूर्ति की स्थापना कर सकता है ? इस विषय में धर्मशास्त्र मूक है। आज के कानून के अनुसार यदि पुजारी लोग न चाहें तो मन्दिर का मैनेजर या ट्रस्टी मूर्ति का स्थानान्तरण नहीं कर सकता।
१५. योगश्च क्षेमं च योगक्षेमम् । योगशब्देनालम्धलाभकारणं श्रौतस्मार्ताग्निसाध्यमिष्टं कर्म लक्ष्यते । मशब्देन सम्मपरिरक्षण हेतुभूतं बहिर्वेदि बानतडागारार्मानिर्मानादि पूर्त कर्म लक्ष्यते । तदुभयं पैतृकमपि पितृद्रव्यविरोधार्जितमप्यविभाज्यम् । यथाह लोगाशिः । क्षेमं पूर्वं योगमिष्टमित्याहुस्तत्वदर्शिनः । अविभाज्ये च ते प्रोक्ते शयनासनमेव च ॥ इति मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य २।११८-११९) ।
धर्म० ६१
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