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धर्मशास्त्र का इतिहास प्रजापति (२५ एव २८), अत्रि (३२७) ने दान-काल के विषय में नियम दिये हैं। विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय ८९) ने वर्ष की पूर्णिमाओं के दिन विभिन्न प्रकार के पदार्थों के दान करने से उत्पन्न फलों की चर्चा की है। अनुशासनपर्व (अध्याय ६४) ने कृत्तिका से आगे के २७ नक्षत्रों के दानों का उल्लेख किया है।
एक सामान्य नियम यह है कि रात्रि में दान नहीं दिया जाना चाहिए। किन्तु कुछ अपवाद भी हैं। अत्रि (३२७) ने लिखा है कि ग्रहणों, विवाहों, संक्रान्तियों एवं पुत्ररत्न-लाभ के अवसर पर रात्रि में दान दिये-लिये जा सकते हैं। और देखिए पराशरमाधवीय १११, पृ० १९४ में उद्धृत देवल।
उपर्युक्त अवसरों एवं नियमों का दिग्दर्शन शिलालेखों में भी हो जाता है। दो-एक उदाहरण यहां दिये जाते हैं। सूर्य-ग्रहण के अवसर पर भूमि एवं ग्रामों के दान की चर्चा ताम्रपत्रों एवं शिलालेखों में हुई है, यथा राष्ट्रकूट नन्नराज का तिवरखेड पत्र (एपिग्रेफिया इण्डिका, जिल्द ११, पृ० २७९, इण्डियन ऐष्टीक्वेरी, जिल्द ६, पृ०७३, सन् ६१३ ई०), चालुक्य कीर्तिवर्मा द्वितीय के समय का लेख (एपिपॅफिया इण्डिका, जिल्द ३,पृ० १००, सन् ६६० ई०)। चन्द्रग्रहण के अवसर पर प्रदत्त दानों का उल्लेख जे० बी० ओ० आर० एस० (जिल्द २०, पृ० १३५), एपिप्रैफिया इण्डिका (जिल्द १,पृ० ३४१, जिल्द १९पृ० ४१, जिल्द २०,पृ० १२५) में हुआ है। अयनों (उत्तरायण एवं दक्षिणायन) के अवसर वाले दानपत्रों के लिए देखिए इण्डियन एण्टिअवेरी, जिल्द १२, पृ० १९३, संजन-पत्र (अमोषवर्ष का)। संक्रान्तियों के अवसर के दानपत्रों की चर्चा के लिए देखिए एपिनफिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० १८२, जिल्द १२, पृ० १४२, जिल्द ८, पृ० १५९। इस प्रकार अन्य तिथियों पर दिये गये दानपत्रों की चर्चा के लिए देखिए एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द ७, पृ० ९३, जिल्द १४, पृ० ३२४, जिल्द १४, पृ० १९८, जिल्द ७, पृ० ९८, जिल्द १०, पृ० ७५ ।
बान के स्थल-स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों में देश (स्थान या स्थल) के विषय में प्रभूत चर्चाएँ हुई हैं। दानमयूल (पृ०८) में आया है कि घर में दिया गया दान दस गुना, गौशाला में सौ गुना, तीर्थों में सहस्रगुना तथा शिव की मूर्ति (लिंग) के समक्ष का दान अनन्त फल देनेवाला होता है। स्कन्दपुराण (हेमाद्रि, दान, पृ० ८३ में उद्घृत) के मत से वाराणसी, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर (अजमेर), गंगा एवं समुद्र के तट, नैमिषारण्य, अमरकण्टक, श्रीपर्वत, महाकाल (उज्जयिनी में), गोकर्ण, वेद पर्वत तथा इन्हीं के समान अन्य स्थल पवित्र हैं, जहाँ देवता एवं सिद्ध रहते हैं; सभी पर्वत, सभी नदियां एवं समुद्र पवित्र हैं; गोशाला, सिद्ध एवं ऋषि लोगों के वास-स्थल पवित्र हैं, इन स्थानों में जो कुछ दान दिया जाता है वह अनन्त फल देनेवाला होता है।
रान की दक्षिणा--किसी भी वस्तु का दान करते समय दान देनेवाले के हाथ पर जल गिराना चाहिए। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।४।९।९-१०) के अनुसार सभी प्रकार के दानों में जल-प्रयोग होता है (केवल वैदिक यज्ञों को छोड़कर, जिनमें वैदिक उक्तियों के अनुसार कृत्य किये जाते हैं), सभी प्रकार के दानों में दक्षिणा देना भी अनिवार्य है। किन्तु अग्निपुराण (२११३३१) ने सोने-चांदी, ताम्र, चावल, अन्न के दान में तथा आह्निक श्राव एवं आहिक
पनिष्ठा, माना, आश्लेषा में पड़ जाता है एवं अमावस्या रविवार को पड़ती है तो इसे व्यतीपात कहते हैं। पाल ने भी हर्षचरित (१) में लिखा है कि हर्ष का जन्म व्यतीपात-सी अशुभ पड़ियों से रहित समय में हुमाया।
___ १२. वाराणसी कुरुक्षेत्र प्रयागः पुष्करानिया बना समुद्रतीर मियामरकण्टकम् ॥ श्रीपर्वतमहाकाल मोकपर्वतम् । इत्याचाः कीर्तिता येशः सुरतिवनिवेदिता सर्व सिलोन्ययाः पुचः सर्वाना सतानराः। पोलिनिवाला बेलाः पुयाः प्रकीर्तिताः॥ एता यहत कलस्यानन्याहा भवेत् । स्यपुराण (हेमाति, पाल,०८३में उड़त)।
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