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धर्मशास्त्र का इतिहास 'जो भी कोई इस दातव्य को समाप्त करेगा वह पंच महापापों का भागी होगा', इसी प्रकार संख्या ५ (पृ० ३२) में आया है-'जो इस दातव्य को समाप्त करेगा वह ब्रह्महत्या एवं गोहत्या एवं पंच महापापों का अपराधी होगा।')
आरम्भिक अभिलेखों में दान-महत्ता एवं दान लौटा लेने के विषय में कोई विशेष चर्चा नहीं देखने में आती, किन्तु पश्चात्कालीन अभिलेखों में प्रभूत चर्चाएं हुई हैं। कुछ उक्तियाँ तो सामान्य रूप से सारे भारत में उद्धृत की जाती रही हैं-"सगर तथा अन्य राजाओं ने पृथिवी का दान किया था; जो भी राजा पृथिवीपति होता है वह भूमि-दान का पुण्य कमाता है। भूमिदाता स्वर्ग में ६०,००० वर्षों तक आनन्द ग्रहण करता है, और जो दान लौटा लेता है वह उतने ही वर्षों तक नरक में वास करता है।" इन विधानों के रहते हुए भी कुछ राजाओं ने दान में दी गयी सम्पत्ति लौटा ली है, यथा इन्द्रराज तृतीय के अभिलेख (८३६ शकाब्द) से पता चलता है कि राजा ने ४०० ग्राम दानपात्रों को लौटाये, जो कि उसके पूर्व के राजाओं ने जप्त कर लिये थे (एपिग्रेफिया इण्डिका, जिल्द ९, पृ.१४)। चालुक्य विक्रमादित्य प्रथम (६६० ई०) के तलमंत्रि ताम्रपत्र से पता चलता है कि राजा ने मन्दिरों एवं ब्राह्मणों को पुनः तीन राज्यों में हृत दान लौटा दिये (एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द ९,पृ० १००) । राजतरंगिणी (१६६-१७०) से पता चलता है कि अवन्तिवर्मा के पुत्र शंकरवर्मा ने अपने ऐश-आराम (व्यसनों) से खाली हुए कोश को मन्दिरों की सम्पत्ति छीनकर पूरा किया। पराशर (१२।५१) ने लिखा है कि दान में पूर्वदत्त सम्पत्ति को छीन लेने से एक सौ वाजपेय यज्ञ करने या लाखों गायें देने पर भी प्रायश्चित्त नहीं होता। परिव्राजक महाराज संक्षोभ के कोह पत्रों से एक विचिव उक्ति का पता चलता है'जो व्यक्ति मेरे इस दान को तोड़ेगा उसे मैं दूसरे जन्म में रहकर भी भयंकर शामाग्नि में जला दूंगा....' (देखिए, गुप्त इंस्क्रिप्शंस, संख्या २३, पृ० १०७)। बहुत से शिलालेखों में वर्णित दानों में ऐसा उल्लेख है कि "इस पूर्व-दान से रहित भूमि-खण्ड या स्थल में सब कुछ दिया जा रहा है...", यथा “पूर्वप्रत्त-देव-ब्रह्म-दाय-रहितः”। परमर्दिदेव (चन्देलों के राजा) के एक दान में (एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द २२ १० १२९) बुद्ध (बुद्ध-मन्दिर) को दिये गये पाँच हलों (भूमि-माप) को छोड़कर अन्य भू-भाग देने की चर्चा है। इससे स्पष्ट है कि वेदानुयायी राजा भी बुद्धमन्दिर को दिये गये दान का सम्मान करता था (देवश्रीबुद्ध-सत्क-पंच-हलं बहिष्कृत्य)। बहुत-से ऐसे उदाहरण मिले हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि राजाओं ने प्रतिग्रहीता की भूमि खरीदकर पुनः उसे वह दान में दे दी (देखिए एपिग्रफिया इण्डिका, जिल्द १७, पृ० ३४५) । राजा लोग दान दी हुई भूमि से किसी प्रकार का कर नहीं लेते थे (एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० ६५, वही, जिल्द ६, पृ० ८७, गुप्त इंस्क्रिप्शंस, संख्या ५५, पृ० २३५) ।
भूमि या ग्राम के दान-पत्रों में आठ भोगों का वर्णन आया है (देखिए एपिग्रंफिया इण्डिका, जिल्द ६, पृ०९७)। विरूपाक्ष के श्रीशैल-पत्रों में भोगों के नाम आये हैं, यथा निषि, निक्षेप (भूमि पर जो कुछ दिया गया हो), बारि (जल), अश्मा (प्रस्तर, खाने), अक्षिणी (वास्तविक विशेषाधिकार), आगामी (भविष्य में होनेवाला लाम), सिद्ध (जो भू-खंड कृषि के काम में ले लिया है) एवं साध्य (बंजर भूमि, जो कमी खेती के काम में आ सकती है)। इन शब्दों के अर्थ के लिए देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द १३, पृ० ३४ एवं इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द १९, पृ०, २४४। मराठों के काल में भूमि-खण्डों एवं ग्रामों के दानों में 'जलतरुतृणकाष्ठपाषाणनिधिनिक्षेप' (जल, तरु. पास, लकड़ी, पत्थर, कोश एवं जमा) लिखा रहता था।
भूमि पर स्वामित्व किसका?--इस प्रश्न के विषय में बहुत प्राचीन काल से वाद-विवाद होता आया है। जैमिनि (६७३) ने लिखा है कि विश्वजित् यज्ञ में (जिसमें याज्ञिक अर्थात् यज्ञ करने वाला अपना सर्वस्व दान कर देता है) सम्राट् मी सम्पूर्ण पृथिवी का दान नहीं कर सकता, क्योंकि पृथिवी सब की है (सम्राट् तथा उनकी जो जोतते हैं और प्रयोग में लाते हैं)। शबर ने जैमिनि की इस उक्ति की व्याख्या की है और अन्त में कहा है कि पृथिवी पर सम्राट
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