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धर्मशास्त्र का इतिहास ४००० कार्षापण देकर भूमि खरीदी और उसे अपने (अर्थात् उषवदात) द्वारा निर्मित गुफा में चारों ओर से आनेवाले भिक्षुओं को दे दिया।
विवाह के लिए ब्राह्मण को तथा उसे पूर्णरूपेण व्यवस्थित करने के लिए जो दान दिया जाता है, उसकी भी प्रभूत महत्ता गायी गयी है। दक्ष ने लिखा है-"मातृपितृविहीन ब्राह्मण के संस्कार एवं विवाह आदि कराने से जो पुण्य होता है उसे कूता नहीं जा सकता, एक ब्राह्मण को व्यवस्थित करने से जो फल प्राप्त होता है, वह अग्निहोम एवं अग्निष्टोम यश करने से प्राप्त नहीं होता" (दक्ष ३।३२-३३) । नैवेशिक दान के विषय में अपरार्क (पृ० ३७७) ने कालिकापुराण से लम्बी उक्ति उद्धृत की है, जिसका संक्षेप यों है--"दाता को श्रोत्रिय ११ ब्राह्मण चुनकर उनके लिए ११ मकान बनवा देने चाहिए, अपने व्यय से उनका विवाह सम्पादित करा देना चाहिए, उनके घरों को अन्न-भण्डार, पशु, नौकरानियों, शय्या, आसन, मिट्टी के भाण्डों, ताम्र आदि के बरतनों एवं वस्त्रों से सुसज्जित कर देना चाहिए; ऐसा करके उसे चाहिए कि वह प्रत्येक ब्राह्मण के भरण-पोषण के लिए १०० निवर्तनों की भूमि या एक गाँव या आधा गाँव दे और उन ब्राह्मणों को अग्निहोत्री बनने की प्रेरणा करे। ऐसा करने से दाता सभी प्रकार के यज्ञ, व्रत, दान एवं तीर्थयात्राएँ करने का पुण्य पा लेता है और स्वर्गानन्द प्राप्त करता है। यदि कोई दाता इतना न कर सके तो कम-से-कम एक श्रोत्रिय के लिए वैसा-कर देने पर उतना ही पुण्य प्राप्त करता है।" शिलालेखों के अनुशीलन से पता चलता है कि बहुत-से राजाओं ने ब्राह्मणों के विवाहों में धन-व्यय किया है। आदित्यसेन के अफसाद शिलालेख (देखिए गुप्त इंस्क्रिप्शंस, सं० ४२, पृ० २०३) में अग्रहारों के दानों से १०० ब्राह्मण कन्याओं के विवाह कराने का वर्णन आया है। शिलाहार राजकुमार गण्डरादित्य के शिलालेख से पता चलता है कि राजा ने १६ ब्राह्मणों के विवाह कराये और उनके भरण-पोषण के लिए तीन निवर्तनों का प्रबन्ध किया (देखिए जे० बी० बी० आर० ए० एस०, जिल्द १३, पृ० १) । ब्राह्मणों का जीवन सादा, सरल और उनके विचार उच्च थे, वे देश के पवित्र साहित्य को वसीयत के रूप में
की रक्षा करते थे और उसे दूसरों तक पहुँचाते थे, वे लोगों को निःशल्क पढाते थे। उन दिनों राज्य में आधुनिक काल की भांति शिक्षण-संस्थाएँ नहीं थीं, अतः राजाओं का यह कर्तव्य था कि वे ब्राह्मणों की ऐसी सहायता करते कि वे अपने कार्यों को सम्यक् रूप से सम्पादित कर पाते। याज्ञवल्क्य (२।१८५) ने राजाओं के लिए यह लिखा है कि उन्हें विद्वान् एवं वेदज्ञ ब्राह्मणों की सुख-सुविधा का प्रबन्ध करना चाहिए, जिससे कि वे स्वधर्म सम्पादित कर सकें। अपरार्क (पृ० ७९२) ने बृहस्पति की उक्तियाँ उद्धृत करके लिखा है कि राजा को चाहिए कि वह अग्निहोत्री एवं विद्वान् ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए निःशुल्क भूमि का दान करे और ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपना कर्तव्य करें और धार्मिक कार्य करते हुए लोक-मंगल की भावना से पूर्ण अपना जीवन व्यतीत करें। ब्राह्मणों को यह भी चाहिए कि वे जनता के सन्देह दूर करें और ग्रामों, गणों एवं निगमों के लिए नियम, विधान तथा परम्पराएँ स्थिर करें। कौटिल्य (२।१) ने भी ब्राह्मणों के लिए निःशुल्क भूमि के दान की बात चलायी है।
भूमि-दान बहुत प्राचीन काल से ही भूमि-दान को सर्वोच्च पुण्यकारी कृत्य माना गया है। वसिष्ठधर्मसूत्र (२९।१६), बृहस्पति (७), विष्णुधर्मोत्तर, मत्स्यपुराण (अपरार्क, पृ० ३६९-३७० में उद्धृत), महाभारत (अनुशासनपर्व ६२। १९) आदि में भूदान की महत्ता गायी गयी है। अनुशासनपर्व (६२।१९) ने लिखा है-"परिस्थितिवश व्यक्ति जो कुछ पाप कर बैठता है वह गोचर्म मात्र भूदान से मिट सकता है। अपरार्क (पृष्ठ ३६८, ३७०) ने विष्णुधर्मोत्तर,
१४. यत्किचित्कुरुते पापं पुरुषो वृत्तिकशितः। अपि गोचममात्रेण भूमिदानेन शुध्यति ॥ बसिष्ठ (२९।१६),
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