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बृक्ष-वाटिकारोपन
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अपरार्क (पृ० ४०९-४१४), हेमाद्रि ( दान, पृ० ९९७ - १०२९), दानक्रियाकौमुदी ( पृ० १६० १८१), जलाशयोत्सर्गतत्त्व ( रघुनन्दन कृत), नीलकंठ कृत प्रतिष्ठामयूख एवं उत्सर्गमयूख, राजधर्मकौस्तुभ ( पृ० १७१ - २२३ ) आदि ग्रन्थों ने कूपों, जलाशयों, पुष्करिणियों आदि की प्रतिष्ठा के विषय में विशद विधि दी है। यह विधि गृह्यपरिशिष्टों, पुराणों (मत्स्य ५८ आदि), तन्त्रों, पाञ्चरात्र तथा अन्य ग्रन्थों पर आधारित है। हम इस विधि का वर्णन यहाँ नहीं दे सकेंगे। विस्तारपूर्ण विधि के मूल में जो बात है वह केवल जलाशय के जल की पवित्रता से सम्बन्धित है, क्योंकि पूजा-पाठ तथा धार्मिक क्रिया-कलाप से वस्तु की पवित्रता प्रतिष्ठित हो जाती है। प्रतिष्ठा का सामान्य तात्पर्य है व्यवस्थित कृत्यों के साथ जनता को समर्पण । प्रतिष्ठा की विधि में चार मुख्य स्तर हैं- (१) संकल्प, (२) होम, (३) उत्सर्ग ( इसका उद्घोष कि वस्तु दे दी गयी है) तथा (४) दक्षिणा एवं ब्राह्मण भोजन । मन्दिर के लिए उचित शब्द है प्रतिष्ठा न कि उत्सर्ग ।
बाम एवं उत्सर्ग में भेद — दान एवं उत्सर्ग के पारिभाषिक अर्थ में कुछ अन्तर है। दान में स्वामी अपना स्वामित्व किसी अन्य को दे देता है और उसका उस वस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता, अर्थात् न तो वह उसका प्रयोग कर सकता और न उस पर किसी प्रकार का नियन्त्रण ही रख सकता है। किन्तु जब उत्सर्ग किया जाता है तो वस्तु जनता की हो जाती है और दाता जनता के सदस्य के रूप में उसका उपयोग कर सकता है। यह धारणा अधिकांश लेखकों की है, किन्तु कुछ लेखक उत्सर्ग की हुई वस्तु का दाता द्वारा प्रयोग अनुचित ठहराते हैं ।
जलाशयों के प्रकार
जन-कल्याण के लिए खुदाये हुए जलाशयों के चार प्रकार होते हैं— कूप, वापी, पुष्करिणी एवं तड़ाग । कुछ ग्रन्थों ने लिखा है कि चतुर्भुजाकार या वृत्ताकार होने से कूप का व्यास ५ हाथ से ५० हाथ तक हो सकता है, और इसमें साधारणतः पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ नहीं होतीं । वापी वह कूप होता है जिसमें चारों ओर से या तीन, दो या एक ओर से सीढ़ियाँ हों और जिसका मुख ५० से १०० हाथ तक हो। पुष्करिणी १०० से २०० हाथ व्यास की होती है । तड़ाग २०० से ३०० हाथ लम्बा होता है। मत्स्यपुराण ( १५४।५ १२ ) के अनुसार वापी १० कूपों के बराबर एवं हृद (गहरा जलाशय) १० वापियों के बराबर होता है; एक पुत्र १० हृदों के बराबर तथा एक वृक्ष १० पुत्रों के बराबर होता है। रघुनन्दन द्वारा उद्धृत वसिष्ठसंहिता के अनुसार पुष्करिणी ४०० हाथ लम्बी और तड़ाग इसका पाँच गुना बड़ा होता है।
वृक्ष - महत्ता एवं वृक्षारोपण आदि
वृक्ष महतः -- भारत में वृक्षों की महत्ता सभी कालों में गायी गयी है । वे यज्ञ में यूपों (जिनमें बलि का पशु बौधा जाता 1 के लिए, इध्म ( ईंधन या समिधाओं) के लिए, स्रुव, जुहू आदि यज्ञपात्रों एवं करछुलों आदि के लिए उपयोगी होते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण (१।१।३) ने सात प्रकार के पवित्र वृक्ष बताये हैं। तैत्तिरीय संहिता ( ३।४)८१४) के मत से इम (ममिषाएँ) न्यग्रोध, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं प्लक्ष नामक वृक्षों की होती हैं, क्योंकि उनमें गन्धवों एवं
२. सवा जलं पवित्रं स्यादपवित्रमसंस्कृतम् । कुशाग्रेणापि राजेन्द्र न स्प्रष्टव्यमसंस्कृतम् । वापीकूपतडागावी यज्जलं स्यावसंस्कृतम् । अपेयं तद् भवेत्सर्वं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ भविष्यपुराण (निर्णयसिन्धु, ३ पूर्वार्ध, पू० ३३४ में उद्धृत) । प्रतिष्ठापनं सविधिकोत्सर्जनमित्यर्थः । दानक्रियाकौमुदी, पृ० १६६ ।
धर्म ०-६०
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