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पान के प्रकार
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एवं अन्य लोगों के अधिकारों में कोई अन्तर नहीं है। व्यवहारमयुख (पृ० ९१) ने भी उपर्युक्त बात दुहरायी है। उपर्युक्त मत के अनुसार पृथिवी के भू-खण्डों पर अधिकार उनका है जो जोतते हैं, बोते हैं, राजा को केवल कर एकत्र करने का अधिकार है। जब राजा स्वयं भूमि खरीद लेता है तो उसे उस भूमि को दान रूप में देने का पूर्ण अधिकार है। इससे स्पष्ट है कि भूमि पर राज्य का स्वामित्व नहीं है, वह केवल कर लेने का अधिकारी है।
एक दसरा मत यह है कि राजाही ममि का स्वामी है.प्रजाजन केवल मोगी या अधिकारी मात्र हैं। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ११३१८) ने लिखा है कि याज्ञवल्क्य के शब्दों से निर्देश मिलता है कि भू-दान करने या निबन्ध देने का अघिकार केवल राजा को है न कि किसी जनपद के शासक को।" मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य २।११४) ने एक स्मृति की उक्ति उद्धृत की है-“छः परिस्थितियों में भूमि जाती है अर्थात् दी जाती है अपने आप, ग्राम, ज्ञातियों (जाति भाई लोगों), सामन्तों, दायादों की अनुमति तथा संकल्प-जल से।" यहाँ राजा की अनुमति की चर्चा नहीं है। किन्तु कभी कभी राजा की आशा की भी आवश्यकता समझी गयी है (देखिए गुप्त इंस्क्रिप्शंस, संख्या ३१, पृ० १३५)।
. दान-सम्बन्धी ताम्रपत्रों की बड़ी महत्ता थी और कभी-कभी लोग कपटलेख का सहारा लेकर भू-सम्पत्ति पर अधिकार जताते थे। हर्षवर्धन के धुवन ताम्रपत्र (एपिप्रैफिया इंडिका, जिल्द ७, पृ० १५५) में वामरथ्य नामक ब्राह्मणं के (सोमकुण्ड के ग्राम के विषय में) कूट लेख का प्रमाण दिया हुआ है। मनु (९।२३२) ने कपटाचरण से राजकीय आज्ञाओं की प्राप्ति पर मृत्यु-दण्ड की व्यवस्था दी है (देखिए फ्लीट का "स्पूरिएस इण्डिएन रेकार्डस" नामक लेख, इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ३०, पृ. २०१)।
मनु तथा अन्य स्मृतिकारों के कथनानुसार यह पता चलता है कि कर्षित भूमि (खेती के काम में लायी जाती भूमि) पर कृषकों का स्वामित्व था और राजा को उसकी रक्षा करने के हेतु कर दिया जाता था। मनु (७।१३०-१३२) में आया है-"राजा को पशुओं एवं सोने का १/५० भाग, अनाजों का १/६, १/८ या १/१२ भाग तथा वृक्षों, मांस, मधु, घृत, गंधों, जड़ी-बूटियों (ओषषियों), तरल पदार्थों (मदिरा आदि, पुष्पों), जड़-मूलों, फलों आदि का १/६ भाग लेना चाहिए। मनु (११११८) ने अप्रत्याशित अवसरों पर भूमि की उपज पर १/४ भाग तक कर लगा देने की व्यवस्था दी है। मनु (९।४४) ने लिखा है कि भूमि उसी की है, जो पास, फूस, झाड आदि को दूर कर उसे खेती के योग्य बनाता है। मनु (८१३९) ने लिखा है कि भूमि में गड़े धन या खान में पाये गये धन का भागी राजा इसीलिए होता है कि वह पृथ्वी का शासक और रक्षक है। इस उक्ति से स्पष्ट है कि मनु राजा को भूमि का स्वामी नहीं मानते थे। नहीं तो गड़े हुए धन तथा खानों की सम्पत्ति पर वे उसका (राजा का) पूर्ण अधिकार बताते और केवल थोड़ा भाग पा लेने का अधिकारी न बताते। मनु (८।२४३) ने समय पर खेती न करने वाले कृषकों पर दण्ड दी यवस्था की है। इस दण्ड का अर्थ केवल इतना ही है कि खेती न करने से राजा का भाग मारा जाता है, क्योंकि दूसरे व्यक्ति को जोतने-बोने तथा समय से खेती करने से राजा को कर के रूप में अपना भाग मिलता है। उपर्युक्त उक्तियों से प्रकट होता है कि मनु कृषकों को अर्थात् खेती करने वालों को ही भूमि का स्वामी मानते थे, वे राजा को केवल कर या भाग लेने का अधिकारी मानते थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कुछ अच्छे राजा कृषकों से भूमि खरीदकर प्रतिग्रहीता ब्राह्मणों या धार्मिक स्थानों को
१६. अनेन भूपतेरेव भूमिदाने निबन्धवाने बाधिकारो न भोगपतेरिति वशितम्। मिताक्षरा, याज्ञवल्क्य ११३१८। बहुत-से कानपत्र राष्ट्रपतियों, विषयपतियों, भोगपतियों आदि को सम्बोषित है। देलिए गुप्त इंस्क्रिप्शंस, संस्था २४,१० ११०, एपिवैफिया इगिका, बिल्ल ११,१०८२ एवं जिल्ब १२, १.० ३४ में 'भोग' शब (जो राज्य में बिले वा जनपद का घोतक है) को व्याल्या देलिए; यही अर्थ भक्ति' शम का भी है।
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