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धर्मशास्त्र का इतिहास - हिरण्यगर्भ-इस विषय में देखिए मत्स्यपुराण (२७५) एवं लिंगपुराण (२।२९)। मण्डप, काल, स्थल, पदार्थ (सामग्रियाँ), पुण्याहवाचन, लोकपालों का आवाहन आदि इस महादान तथा अन्य महादानों में वैसा ही है जैसा कि तुलापुरुष में होता है। दाता एक सोने का कुण्ड (थाल या परात या बरतन), जो ७२ अंगुल ऊंचा एवं ४८ अंगुल चौड़ा होता है, लाता है। यह कुण्ड मुरजाकार (मृदंगाकार) होता है या सुनहले कमल (आठ दल वाले) के भीतरी भाग के आकार का होता है। यह स्वर्णिम पात्र, जो हिरण्यगर्भ कहलाता है, तिल की राशि पर रखा जाता है। इसके उपरान्त पौराणिक मन्त्रों के साथ सोने के पात्र को सम्बोधित किया जाता है और उसे हिरण्यगर्भ (स्रष्टा) के समान माना जाता है।" तब दाता उस हिरण्यगर्भ के अन्दर उत्तराभिमुख बैठ जाता है और गर्भस्थ शिशु की भांति पांच श्वासों के काल तक बैठा रहता है, उस समय उसके हाथों में ब्रह्मा एवं धर्मराज की स्वर्णाकृतियां रहती हैं। तब गुरु स्वर्णपात्र (हिरण्यगर्भ) के ऊपर गर्भाधान, पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयनं के मन्त्रों का उच्चारण करता है। इसके उपरान्त गुरु वाद्ययन्त्रों या मंगलगानों के साथ हिरण्यपात्र से दाता को बाहर निकल आने को कहता है। इसके उपरान्त शेष बारहों संस्कार प्रतीकात्मक ढंग से सम्पादित किये जाते हैं। दाता हिरण्यगर्भ के लिए मन्त्रपाठ करता है और कहता है"पहले मैं मरणशील के रूप में मां से उत्पन्न हुआ था, किन्तु अब आप से उत्पन्न होने के कारण दिव्य शरीर धारण करूँगा।" इसके उपरान्त दाता सोने के आसन पर बैठकर 'देवस्य त्वा' नामक मन्त्र के साथ स्नान करता है और हिरण्यगर्भ को गुरु एवं अन्य ऋत्विजों में बाँटता है।
ब्रह्माण्ड-देखिए मत्स्यपुराण (२७६) । इस दान में दो ऐसे स्वर्ण-पात्र निर्मित होते हैं, जो गोलार्ध के दो भागों के समान होते हैं, जिनमें एक द्यौ (स्वर्ग) तथा दूसरा पृथिवी माना जाता है। ये दोनों अर्ध पात्र दाता की सामर्थ्य के अनुसार बीस से लेकर एक सहस्र पलों के वजन के हो सकते हैं और उनकी लम्बाई-चौड़ाई १२ से १०० अंगुल तक हो सकती है। इन दोनों अक़ पर आठ दिग्गजों, वेदों, छ: अंगों, अष्ट लोकपालों, ब्रह्मा (मध्य में), शिव, विष्णु, सूर्य (ऊपर), उमा, लक्ष्मी, वसुओं, आदित्यों, (भीतर) मरुतों की आकृतियाँ (सोने की) होनी चाहिए, दोनों को रेशमी वस्त्र से लपेटकर तिल की राशि पर रख देना चाहिए और उनके चतुर्दिक १८ प्रकार के अन्न सजा देने चाहिए। इसके उपरान्त आठों दिशाओं में, पूर्व दिशा से आरम्भ कर अनन्तशयन (सर्प पर सोये हुए विष्णु), प्रद्युम्न, प्रकृति, संकर्षण, चारों वेदों, अनिरुद्ध, अग्नि, वासुदेव की स्वर्णिम आकृतियां क्रम से सजा देनी चाहिए। वस्त्रों से ढके हुए दस घट पास में रख देने चाहिए। स्वर्ण जटित सींगों वाली दस गायें, दूध दुहने के लिए वस्त्रों से ढके हुए कांस्य-पात्रों के साथ दान में दी जानी चाहिए। चप्पलों, छाताओं, आसनों, दर्पणों की भेट भी दी जानी चाहिए। इसके उपरान्त सोने के पात्र (जिसे ब्रह्माण्ड कहा जाता है) का पौराणिक मन्त्रों के साथ सम्बोधन होता है और सोना गुरु एवं ऋत्विजों या पुरोहितों में (दो भाग गुरु को तथा शेषांश आठ ऋत्विजों को) बाँट दिया जाता है।
कल्पपादप या कल्पवृक्ष-(मत्स्य २७७, लिंग २०३३)। भांति-भांति के फलों, आभूषणों एवं परिधानों से सुसज्जित कल्पवृक्ष का निर्माण किया जाता है। अपनी सामर्थ्य के अनुसार सोने की मात्रा तीन पलों से लेकर एक सहल तक हो सकती है। आधे सोने से कल्पपादप बनाया जाता है और ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सूर्य की आकृतियाँ रच दी जाती हैं। पाँच शाखाएँ भी रहती हैं। इनके अतिरिक्त बचे हुए आधे सोने की चार टहनियाँ, जो कम से सन्तान, मन्दार, पारिजातक एवं हरिचन्दन की होती हैं, बनायी जाती हैं, जिन्हें क्रम से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर में रख दिया
१८. ऋग्वेद का १०।१२१११-१० वाला अंश हिरण्यगर्भ के लिए है और उसका मारम्भ हिरण्यगर्भः समवर्तताले भूतस्य पातः पतिरेक आसीत्' से होता है।
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