________________
धर्मशास्त्र का इतिहास
४६८
देनी चाहिए। हेमाद्रि ( दान, पृ० ४४८-४४९ ) ने इसे उद्धृत किया है और लिखा है कि इस प्रकार के गोदान से नरक मिलता है ।
पर्वत-दान
विभिन्न नाम -- मत्स्यपुराण (अध्याय ८३ ।९२ ) ने इस प्रकार के पर्वतवानों या मेरुदानों का वर्णन किया है जो ये हैं--" धान्य (अनाज), लवण, गुड़, हेम (सोना), तिल. कार्पास (कपास), घृत, रत्न, रजत (चाँदी) एवं शर्करा ।" अग्निपुराण (२१०१६ - १० ) में भी यही सूची पायी जाती है। हेमाद्रि ( दान, पृ० ३४६-३९६) ने कालोत्तर नामक एक शैव ग्रन्थ को उद्धृत कर १२ दानों की चर्चा की है। इन्हें पर्वत, शैल या अचल दान इसलिए कहा जाता है कि देय पदार्थ पहाड़ों की भाँति रखकर दान में दिये जाते हैं।
विधि -- सभी प्रकार के पर्वत - दानों की विधि एक-सी है। एक उत्तर-पूर्व या पूर्व की ओर झुका हुआ वर्गाकार
स्थान बनाया जाता है जिस पर गोबर से लीपकर कुश बिला दिये जाते हैं। इसके मध्य में एक राशि पर्वताकार तथा अन्य राशियाँ पहाड़ियों की भाँति बना दी जाती हैं। अनाज के पर्वत के निर्माण में १००० या ५०० या ३०० द्रोण की तोल की अन्न- राशि होनी चाहिए। इस राशि के मध्य भाग में सोने के तीन वृक्ष होने चाहिए और चारों दिशाओं में क्रम से मोतियों के, गोमेद एवं पुष्पराग के, मरकत एवं नीलमणियों के तथा वैदूर्य के कमलवत् पौधे होने चाहिए । मत्स्यपुराण ने ८१ देवताओं की स्वर्ण एवं रजत आकृतियों की भी चर्चा की है। होम के लिए एक गुरु और चार पुरोहितों का चुनाव होता है और प्रत्येक देवता को १३-१३ आहुतियाँ दी जाती हैं। लवण के दान में १ से १६ द्रोणों, सोने के दान में १ से १००० पलों, तिल के दान में ३ से १० द्रोणों, कपास के दान में ५ से २० भारों, घी के दान में २ कुम्भों से २० कुम्भों, रत्नों के दान में २०० मोतियों से १००० मोतियों तक का प्रयोग किया जाता है तथा बहुमूल्य रत्नों वाली पहाड़ियों में मोतियों के १/४ भाग का, कपास में २० पलों से १०,००० पलों का, शर्करा में १/२ भार से ८- भारों का प्रयोग होता है।
पशुओं, वस्त्रों, मृगचर्म तथा प्रपा आदि का दान
स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों ने हाथियों, घोड़ों, भंशों, वस्त्रों, मृगचर्मों, छातों, जूतों आदि के दान की चर्चा की है जिसे हम स्थानाभाव के कारण यहाँ छोड़ रहे हैं । किन्तु इनमें से दो या तीन दानों का वर्णन महत्त्वपूर्ण है । अपरार्क ने भविष्योत्तर से एक लम्बा विवरण उपस्थित किया है, जिसमें चैत्र मास में यात्रियों को जल पिलाने के लिए एक मण्डप निर्माण की चर्चा हुई है। नगर के मध्य में या मरुभूमि में या किसी मन्दिर के पास इरा मण्डप का निर्माण होता था। एक ब्राह्मण को पानी पिलाने के लिए शुल्क पर नियुक्त किया जाता था। यह मण्डप ४ या ३ महीनों तक चलता था। इसे उत्तर भारत में पीसरा ( प्याऊ ) भी कहते हैं ।
पुस्तक- दान
रामायण, महाभारत, धर्मशास्त्रों एवं पुराणों की हस्तलिखित प्रतियों का भी दान हुआ करता था । अपरार्क ( पृ० ३८९-४०३ ) एव हमाद्रि ( दान, पृ० ५२६-५४०) न भविष्योत्तर, मत्स्य तथा अन्य पुराणों को उद्धृत कर इस प्रकार के दानों की महत्ता गायी है। भविष्यपुराण ने लिखा है कि जो व्यक्ति विष्णु, शिव या सूर्य के मन्दिरों में लोगों के प्रयोग के लिए पुस्तकों का प्रबन्ध करते हैं वे गोदान, भूमिदान एवं स्वर्णदान का फल पाते हैं। कुछ शिलालेखों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org