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धर्मशास्त्र का इतिहास
साधन है, क्योंकि यह मनुष्य का दूध से प्रतिपालन करती है एवं इसकी सन्तानों (बैलों) से कृषि का कार्य होता है, अतः इसकी प्रशंसा का गान होना चाहिए। अपरार्क ( पृ० २९५-२९७) ने पुराणों द्वारा की गयी प्रशंसा उद्धृत की है। गायों में कपिला गाय के दान की प्रभूत महत्तां गायी गयी है; इस गाय का दान सर्वश्रेष्ठ कहा गया है (अनुशासन -७३।४२ एवं ७७।८) । याज्ञवल्क्य (१।२०५ ) ने लिखा है कि कपिला गाय का दाता अपने साथ अपनी सात पीढ़ियों को तार देता है (पाप से रक्षा करता है)। एक कपिला गाय अन्य १० साधारण गायों के समान है ( अपराकं, पृ० २९७, संवर्त का उद्धरण) ।
गोवान की विधि - वराहपुराण (१११) ने गोदान का वर्णन किया है जिसे हम यहाँ संक्षेप में देते हैं। कपिला गाय को बछड़े के साथ पूर्वाभिमुख करके दाता (स्नान करके तथा शिखा बाँधकर ) उसकी पूजा करता है। वह उसकी पूंछ के पास बैठता है और प्रतिग्रहीता उत्तराभिमुख बैठता है। दाता अपने हाथ में घृतपूर्ण पात्र लेता है जिसमें सोने का एक टुकड़ा रख दिया जाता है। गाय की पूंछ को मक्खन में डुबोकर प्रतिग्रहीता के दाहिने हाथ में पकड़ा दिया जाता है, किन्तु गाय की पूंछ का बाल वाला भाग पूर्व दिशा में ही रखा जाता है। प्रतिग्रहीता के हाथ में जल, तिल एवं कुश रख दिये जाते हैं। दाता अपने हाथ में जलपात्र लेकर पौराणिक मन्त्रों के साथ जल छिड़कता है, दक्षिणा देता है और जब गाय प्रतिग्रहीता के साथ चलने लगती है तो वह कुछ कदम आगे अनुसरण करके गाय की स्तुति करता है। अग्निपुराण ने मरणासन्न मनुष्य के लिए काली गाय का दान श्रेया कर माना है, क्योंकि उससे यमलोक की नदी वैतरणी को पार करने में सुगमता होती है। इसी से गाय को भी 'वैतरणी' कहा गया है।
उभयतोमुखी - गोदान -- याज्ञवल्क्य (१।२०६-२०७), अग्निपुराण (२१०।३३), विष्णुधर्मसूत्र ( ८८/१-४), वनपर्व (२००।६९-७१), अत्रि (३३३), वराहपुराण (११२) आदि ने उभयतोमुखी गाय (जो तुरन्त ही बछडा देने बाली हो ) के दान की विशिष्टता प्रकट की है और कहा है कि दाता स्वर्ग में उतने ही वर्ष रहता है जितने कि गाय एवं बछड़े के शरीर पर रोम होते हैं। च्यवन को उद्धृत कर अपरार्क ( पृ० २९९-३०१) ने इस प्रकार के दान की far बतायी है। जब गाय के पेट से बछड़े का सिर बाहर प्रकट हो तो दाता को प्रतिग्रहीता से कहना चाहिए; मेरे कल्याण के लिए, न कि केवल दान की इच्छा से, इस गाय को स्वीकार करो और ऋग्वेद (४।१९।६) का पाठ करो । इसके उपरान्त दाता गाय को पकड़कर 'क इदं कस्मा अदात्' के सूक्त (अथर्ववेद ३।२९।७, आश्वलायनश्रौतसूत्र ५।१३, आपस्तम्बश्रौतसूत्र १४।११।२) पढ़कर बछड़े को नीचे उतारता है और उच्च स्वर से 'गर्मे नु' (ऋग्वेद ४/२७/१) का पाठ करता है। इसके उपरान्त अग्नि प्रज्वलितं करके दाता देवों, पितरों, नदियों, पर्वतों, पौषों, समुद्रों, सर्पों एवं ओषधियों को सम्बोधित मन्त्रों (ऋग्वेद १।१३९।११, १०।१६ १२, १०७५५, ९ ७५१४, ३।८।११, ७।४९।१, ६।७५।१४, १।९०१६) का पाठ करता है। फिर वह पृथिवी को मन्त्रपाठ (ऋग्वेद १।११२।१, ११२२।१३, १।१८५७, १।१६४।४१ ) से प्रसन्न करता है। तब दाता को घृत की ८४ आहुतियाँ देनी चाहिए, ब्राह्मणों को भोजन देकर उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए, यथा "स्वस्ति नो” (ऋग्वेद ५/५१।१७ ) । इस प्रकार के गोवान के साथ सोने, चांदी, खेत, अनाज, वस्त्र, नमक, चन्दन आदि का दान करना चाहिए। इससे वर्जित भोजन करने, ब्राह्मण
बीर सर्वपापहरं शिवम् । ... • स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ । गावो यशस्य मेभ्यो वं तथा यज्ञस्य ता मुखम् ॥ गावः स्वर्गस्य सोपानं गावः स्वर्गेपि पूजिताः ॥ अनुशासन ५१।२६ एवं ३१; अनुशासन ७१।३३ वा धेनुं सुव्रतां कांस्यवोहां कल्याणवत्सामपलायिनों व । यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्यास्तावद्वर्षाव्यश्नुते स्वर्गलोकम् ॥ यह माशवल्क्य (१।२०५ ) के सदृश है।
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