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धर्मशास्त्र का इतिहास
जाय ( यथा वैश्वदेव आदि के उपरान्त भोजन) उसे नित्य, जो किन्हीं विशिष्ट अवसरों (यथा ग्रहण) पर दिया जाय उसे नैमिलिक तथा जो सन्तानोत्पत्ति, विजय, समृद्धि, स्वर्ग या पत्नी के लिए दिया जाय उसे काम्य कहते हैं। वाटिका, कूप आदि का समर्पण ध्रुवदान कहा जाता है (देवल)। कूर्मपुराण ने इन तीनों प्रकारों में एक और जोड़ दिया है, यथा विमल (पवित्र), जो ब्रह्मज्ञानी को श्रद्धासहित भगवत्प्राप्ति के लिए दिया जाता है। भगवद्गीता ( १७।२०- २२) ने दान को क्रोत्विक, राजस एवं तामस नामक श्रेणियों में बाँटा है और कहा है- "जब देश, काल एवं पात्र के अनुसार अपना कर्तव्य समझ कर दान दिया जाता है और लेनेवाला अस्वीकार नहीं करता, तो ऐसे दान को सात्विक दान कहा जाता है; जब किसी इच्छा की पूर्ति के लिए या अनुत्साह से दिया जाय तो उसे राजस दान तथा जो दान अनुचित काल, स्थान एवं पात्र को बिना श्रद्धा तथा घृणा के साथ दिया जाय उसे तामस दान कहते हैं। योगी-याज्ञवल्क्य का कहना है कि गुप्त दान, बिना अहंकार का ज्ञान तथा बिना अन्य लोगों को दिखाये जप करना अनन्त फल देने वाला होता है। देवल ने भी ऐसा ही कहा है।
बिना माँगा दान -मन (४/२४७ - २५०), याज्ञवल्क्य ( ११२१४ - २१५), आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १ | ६ |१९| १३-१४), विष्णुधर्मसूत्र (५७।११) के मत से कुश, कच्ची तरकारियाँ, दूध, शय्या, आसन, भुना हुआ जौ, जल, मूल्यआन् रत्न, समिधा, फल, कन्दमूल, मधुर भोजन यदि बिना मांगे मिले तो अस्वीकार नहीं करना चाहिए ( किन्तु नपुंसक, वेश्याओं एवं पतितों द्वारा दिये जाने पर अस्वीकार कर देना चाहिए ) ।
अदेय पदार्थ --- कुछ वस्तुएँ दान में नहीं दी जानी चाहिए। अदेय पदार्थों में कुछ तो ऐसे हैं जिन पर अपना स्वत्व नहीं होता तथा कुछ ऐसे हैं जिन्हें ऋषियों ने दान के लिए वर्जित ठहराया है। जैमिनि (६।७।१-७) ने इस विषय में कुछ सिद्धान्त दिये हैं- ( १ ) अपनी ही वस्तु का दान हो सकता है, (२) विश्वजित् यज्ञ में अपने सम्बन्धियों, यथा माता-पिता, पुत्रों एवं अन्य लोगों का दान नहीं हो सकता, (३) राजा अपने सम्पूर्ण राज्य का दान नहीं कर सकता, (४) उस यज्ञ में अश्वों का दान नहीं हो सकता, क्योंकि यह उस यज्ञ में श्रुतिर्वाजित है, (५) शूद्र जो केवल नौकरी के लिए याज्ञिक की सेवा करता है, दान में नहीं दिया जा सकता तथा (६) विश्वजित् यज्ञ में वही पदार्थ दक्षिणास्वरूप दिया जा सकता है जिस पर व्यक्ति का पूर्ण अधिकार एवं स्वामित्व हो । नारद ( दत्ताप्रदानिक ४-५ ) ने आठ प्रकार के दान वर्जित माने हैं- (१) ऋण चुकाने के लिए ऋणी द्वारा ऋणदाता को देने के लिए तीसरे व्यक्ति को दिया गया धन, (२) प्रयोग में लाने के लिए उधार ली गयी सामग्री ( यथा उत्सव के अवसर पर उधार लिया गया आभूषण), (३) न्यास (ट्रस्ट), (४) संयुक्त या कई लोगों के साझे वाली सम्पत्ति, ( ५ ) निक्षेप अर्थात् किसी का जमा किया हुआ धन, (६) पुत्र एवं पत्नी, (७) सन्तानों के रहने पर अपनी पूरी सम्पत्ति एवं (८) दूसरे को पहले से ही दिया हुआ पदार्थ । दक्ष (३।१९-२० ) ने उपर्युक्त सूची में दो बातें और जोड़ दी हैं ( मित्र का धन एवं भय से दान ) तथा एक बात निकाल दी है ( वह पदार्थ जो दूसरे को पहले से ही दे दिया गया हो) । याज्ञवल्क्य (१।१७५ ) में भी यही उनि है । अपरार्क ( पृ० ७७९) में वृहस्पति एवं कात्यायन के इसी प्रकार के वचन उद्धृत किये हैं।
धर्मशास्त्रकारों ने दान-क्रिया के ऊपर प्रतिबन्ध भी लगा रखा है। दान टेन्स चाहिए और अवश्य देना चाहिए, किन्तु भूतानुकम्पा ( दयालुता ) अपने घर के विषय में भी होनी चाहिए ( व्यास ४११६, १८, २४, २६, ३०-३१; अग्निपुराण २०९/३२-३३ ) । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२११११०-१२), बौधायनधर्मसूत्र ( २।३।१९ ) ने लिखा है कि अपने आश्रितों (जिनका भरण-पोषण करना अपना विशिष्ट उत्तरदायित्व है), नौकरों एवं दासों की चिन्ता (परवाह ) न करके अतिथियों एवं अन्य को भोजन बाँट देना अनुचित है। याज्ञवल्क्य (२।१७५) ने लिखा है कि अपने कुटुम्ब की परवाह करते हुए दान देना चाहिए। बृहस्पति एवं मनु ( ११1९-१० ) ने पैसे दान की भर्त्सना की है जो अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण की परवाह न करके दिया जाता है, इसे उन्होंने धर्म का गलत अनुकरण माना है । "अपने लोग भूखों
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