________________
धर्मशास्त्र का इतिहास महत्ता देते हैं और उसके ऊपर किसी अन्य को मानते ही नहीं। इस उपनिषद् ने तर्क उपस्थित किया है कि इष्टापूर्त व्यक्ति को अन्तिम आनन्द नहीं दे सकता, उससे तो व्यक्ति को केवल स्वर्गानन्द मिलता है, जिसे भोगकर व्यक्ति पुनः इस संसार में या इससे भी नीचे के लोक में उतर आता है।
अपरार्क ने 'इष्ट' एवं 'पूर्त' के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए महाभारत का हवाला दिया है-"जो कुछ एक अग्नि (गृह्य अग्नि) में डाला जाता है तथा जो कुछ तीनों श्रौत अग्नियों में डाला जाता है एवं वेदी (श्रीत यज्ञों) में दान किया जाता है उसे 'इष्ट' कहते हैं; किन्तु गहरे कूपों, आयताकार कूपों, तड़ागों (तालाबों), देवतायतनों (मन्दिरों) का समर्पण, अन्नदान एवं आराम (जन-वाटिका) का प्रबन्ध 'पूर्त' कहलाता है।"५ अपरार्क ने नारद को उद्धृत कर लिखा है-"आतिथ्य तथा वैश्वदेव-कर्म इष्ट हैं, किन्तु तालाबों, कूपों, मन्दिरों, आरामों का लोकहितार्थ समर्पण पूर्त है, इसी प्रकार चन्द्र एवं सूर्य के ग्रहणों के समय का दान भी पूर्त है।" रोगियों की सेवा भी पूर्त है (हेमाद्रि, दान, पृ०२०)। मनु ने भी इष्ट एवं पूर्त करने की बात कही है। उनके अनुसार इष्ट एवं पूर्त सदैव करते जाना चाहिए, क्योंकि श्रद्धा एवं उचित ढंग से प्राप्त धन से किये गये इष्ट एवं पूर्त अक्षय होते हैं (मनु ४।२२६)।
सभी लोग, यहाँ तक कि नारियां एवं शूद्र भी, दान दे सकते हैं। दानधर्म की बड़ी महत्ता कही गयी है। अपरार्क ने एक पद्य उद्धृत किया है-"दो प्रकार के व्यक्तियों के गले में शिला बांधकर डुबो देना चाहिए; अदानी धनवान् एवं अतपस्वी दरिद्र ।" सभी द्विजातियों के लिए इष्ट एवं पूर्त करना धर्म माना जाता था; शूद्र लोग पूर्त धर्म कर सकते थे किन्तु वैदिक धर्म नहीं। देवल के अनुसार दाता को पापरोग से हीन, धार्मिक, दित्सु (श्रद्धालु), दुर्गुणहीन, शुषि (पवित्र), निन्दित व्यवसाय से रहित होना चाहिए। बहुत-सी स्मृतियों ने ऐसा लिखा है कि बहुत कम लोग स्वाजित धन दान में देते देखे जाते हैं। व्यास ने लिखा है-"सी में एक शूर, सहस्रों में एक विद्वान्, शत सहनों में एक वक्ता मिलता है, दाता तो शायद ही मिल सकता है और नहीं भी।"
बान के पात्र-इस भाग के अध्याय ३ में योग्य एव अयोग्य पात्रों के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। दो-एक शब्द यहाँ भी कहे जाते हैं। दक्ष (३३१७-१८) ने लिखा है-"माता-पिता, गुरु, मित्र, चरित्रवान् व्यक्ति, उपकारी, दरिद्र (दीन), असहाय (अनाथ), विशिष्ट गुण वाले व्यक्ति को दान देने से पुण्य प्राप्त होता है, किन्तु धूता, बन्दियों (वन्दना करनेवालों), मल्लों (कुश्ती लड़नेवालों), कुवैद्यों, जुआरियों, वञ्चकों, चाटों, चारणों एवं चोरों को दिया गया दान निष्फल होता है। मनु (४।१९३-२००=विष्णुधर्मसूत्र ९३७-१३) ने कपटी एवं वेद न जाननेवाले
५. महाभारतम् । एकाग्निकर्म हवनं त्रेतायो यच्च हूयते। अन्तर्वांच महानमिष्टमित्यभिधीयते ॥वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमारामः पूतमित्यभिधीयते ॥ अपरार्क पृ० २९०, दूसरा पर अत्रि (1) का है। अत्रि ने इष्ट को यों कहा है-"अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चंब पालनम्। आतिथ्यं वैश्वदेवश्च इष्टमित्यभिधीयते॥" अत्रि (४३)।
६. दावेवाप्सु प्रवेष्टव्यो गले बद स्वामहाशिलाम् ।धनवन्तमरातारंपरिचातपस्विनम् ॥ अपराक (१०१९९); दानवाक्यावलि; यह उद्योगपर्व (३०१६०) का पच है।
७. इष्टापूर्ती द्विजातीनां धर्मः सामान्य इष्यते । अधिकारी भवेन्यूडो पूर्त धर्मेन वैदिके अत्रि ४६, लिलित इसे अपराकं (पृ०२४) ने जातुकर्ण का माना है। अपापरोगी धर्मात्मा बित्सुरव्यसनः शुचिः। अनिम्बाचीवकर्माचषड्भिता प्रशस्यते॥ देवल (अपरार्क पृ० २८८ एवं हेमादि, दान,प०१४) । पापरोग मा प्रकार के होते है-मा मावि। शतेष जायते शूरः सहलेषक पन्डितः। वक्ता शतसहस्रप राता भवति नामबा॥ व्यास ॥६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org