________________
बान की व्याख्या
४९
की टीका में मेधातिथि का कथन है-"ग्रहण मात्र प्रतिग्रह नहीं है। उसी को प्रतिग्रह कहते हैं जो विशिष्ट स्वीकृति का परिचायक हो, अर्थात् जब उसे स्वीकार किया जाय तो दाता को अदृष्ट आध्यात्मिक पुण्य प्राप्त हो और जिसे देते समय वैदिक मन्त्र पढ़ा जाय। जब कोई भिक्षा देता है तब वह कोई मन्त्रोच्चारण (यथा 'देवस्य त्वा') नहीं करता, अतः वह शास्त्रविहित दान नहीं है और न स्नेह से मित्र या नौकर को दिया गया पदार्थ ही प्रतिग्रह है।" इसी प्रकार जब 'विद्यादान' शब्द का प्रयोग होता है तो यहाँ दान शब्द मात्र आलंकारिक है, नहीं तो गुरु को शिष्य के लिए दक्षिणा देनी पड़ जायगी, किन्तु ऐसी बात है नहीं, क्योंकि वास्तव में शिष्य ही गुरु को दक्षिणा देता है। इसी प्रकार जब किसी मूर्ति को दान दिया जाता है तो वहाँ भी 'दान' शब्द का प्रयोग गौण अर्थ में ही है, क्योंकि वास्तव में मूर्ति कोई दान ग्रहण नहीं कर सकती। देवल ने शास्त्रोक्त 'दान' की परिभाषायों की है-"शास्त्र द्वारा उचित माने गये व्यक्ति के लिए शास्त्रानुमोदित विधि से प्रदत्त धन को दान कहा जाता है। जब किसी उचित व्यक्ति को केवल अपना कर्तव्य समझकर कुछ दिया जाता है तो उसे धर्मदान कहा जाता है।" दानमयूख (पृ. ३) ने व्याख्या की है कि देवल की परिभाषा केवल सात्त्विक दान से सम्बन्धित है न कि सामान्य दान से। यदि दाता दान भेजे किन्तु वह मार्ग मे ही खो जाय और पाने वाले के यहाँ न पहुंचे तो वह दान नहीं है और न उसके देने से दान का फल ही प्राप्त हो सकता है।
दान के छ: अंग देवल ने दान के छ: अंग वर्णित किये हैं; दाता, प्रतिग्रहीता, श्रद्धा, धर्मयुक्त देय (उचित ढंग से प्राप्त धन), उचित काल एवं उचित देश (स्थान) । इनमें प्रथम चार का स्पष्ट उल्लेख मनु (४१२२६-२२७) में भी है। इन छ: अंगों का वर्णन हम करेंगे।
इष्टापूर्त-आगे कुछ लिखने के पूर्व हम इष्टापूर्त शब्द का अर्थ समझ लें। यह शब्द ऋग्वेद में भी आया है (१०।१४।८) । इसका अर्थ है “यज्ञ-कर्मों तथा दान-कर्मों से उत्पन्न पुण्य ।" ऋग्वेद (१०।१४।८) में हाल में (तुरंत) मरे हुए एक आत्मा के विषय में आया है-"तुम पितरों से मिल सको, तुम यम से मिल सको तथा मिल सको स्वर्ग में अपने इष्टापूर्त से।" 'इष्ट' का अर्थ है जो यज्ञ के लिए दिया गया है और 'पूर्त' का अर्थ है 'जो भर गया है। अथर्ववेद में भी आया है-"हमारे पूर्वजों के इष्टापूर्त (शत्रुओं से) हमारी रक्षा करें... (२।१२।४)।" और देखिए अथर्ववेद (३।२९।१)। इसी.प्रकार तैत्तिरीय संहिता (५।७।७।१-३), तैत्तिरीय ब्राह्मण (२।५।५७, ३।९।१४), वाजसनेयी संहिता (१५।५४), कठोपनिषद् (१।१।८) एवं माण्डूक्योपनिषद् (१।२।१०) में भी इष्टापूर्त का प्रयोग हुआ है। कठोपनिषद् में आया है कि जो अतिथि को बिना भोजन कराये घर में ठहराता है वह आपने इष्टापूर्त का, सन्तानों एवं पशुओं का नाश करता है। माण्डूक्योपनिषद् ने उन लोगों की भर्त्सना की है जो इष्टापूर्त को सर्वोच्च
३. नव ग्रहणमात्रं परिग्रहः। विशिष्ट एव स्वीकारे प्रतिपूर्वो गृह्णातिवतंते। अदृष्टयुष्या वीयमानं मन्त्रपूर्व गृह्णतः प्रतिमहो भवति। न च भैक्ये देवस्य स्वादिमन्त्रोच्चारणमस्ति। न प्रीत्यादिना दानग्रहणे। नए तत्र प्रतिमहव्यवहारः। मेघातियि (मनु ५।४)।
४. अर्यानामुविते पात्रे यथावत्प्रतिपादनम् । दानमित्यभिनिविष्टं व्याख्यानं तस्य वक्यते ॥ देवल (अपरार्क पु. २८७ में, पानक्रियाकीमुवी पृ० २, हेमादि, वानखण्ड, पृ० १३, दानवाक्यावलि आदि द्वारा उद्धृत)। पात्रेभ्यो बीयते नित्यममवेक्ष्य प्रयोजनम्। केवलं धर्मबुद्ध्या यामबानं तदुच्यते॥ देवल (हेमाद्रि द्वारा दान, पृ० १४ में उपत)।
धर्म० ५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org