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अध्याय २५
दान
मनु ( ११८६ ) के कथनानुसार कृत ( सत्ययुग), त्रेता, द्वापर एवं कलियुगों में धार्मिक जीवन के प्रमुख रूप क्रम से तप, आध्यात्मिक ज्ञान, यज्ञ एवं दान हैं। मनु ( ३।७८) ने गृहस्थाश्रम की महत्ता गायी है और कहा है कि अन्य आश्रमों से मह श्रेष्ठ है, क्योंकि इसी के द्वारा अन्य आश्रमों के लोगों का परिपालन होता है। यम ने चारों आश्रमों के विशिष्ट लक्षण इस प्रकार द्योतित किये हैं-"यतियों का धर्म है शम, वनौकसों ( वानप्रस्थों) का साधारण भोजन का त्याग, गृहस्थों का दान एवं ब्रह्मचारियों का धर्म है शुश्रूषा ( या आज्ञापालन ) ।" दक्ष ( १।१२ - १३ ) ने भी चारों आश्रमों के विशेष लक्षणों का वर्णन किया है। हम इस अध्याय में 'दान' का विवेचन करेंगे ।
वैदिक काल में दान की महत्ता
ऋग्वेद ने विविध प्रकार के दानों एवं दाताओं की प्रशस्ति गायी है ( १/१२५, ११२६-११५, ५/६१, ६४४७२ २२-२५, ७।१८।२२-२५, ८०५१३७-३९, ८२६।४६-४८, ८२४६।२१-२४ ८२६८।१४-१९ ) । दानों में गो-दान की महत्ता विशेष रूप से प्रचलित है। दानों में गायों, रथों, अश्वों, ऊँटों, नारियों (दासियों ), भोजन आदि का विशिष्ट उल्लेख हुआ है । छान्दोग्योपनिषद् (४।१-२ ) में आया है कि जानश्रुति पौत्रायण ने स्थान-स्थान पर ऐसी भोजनशालाएँ बनवा रखी थीं, जहाँ पर सभी दिशाओं से लोग आकर भोजन प्राप्त कर सकते थे, ऐसी थी उनकी सदाशयता एवं मानव के प्रति श्रद्धा । ऋग्वेद में तीन स्थानों पर (१०।१०७/२, ७) आया है - "जो ( गायों या दक्षिणा का) दान करता है वह स्वर्ग में उच्च स्थान पर जाता है, जो अश्व-दान करता है वह सूर्य-लोक में निवास करता है, जो स्वर्ण का दानी है वह देवता होता है, जो परिधान का दान करता है वह दीर्घ जीवन का लाभ करता है. 1"
क्रमशः अश्व के दान की महत्ता 'अन्तर पड़ता चला गया। पहले उसका स्थान गाय के बाद था, किन्तु कालान्तर में अश्व के दान की महिमा घट गयी । तैत्तिरीय संहिता ( २।३।१२।१) का कहना है - "जो अश्व-दान लेता है उसे वरुण पकड़ता है, अर्थात् वह जलोदर या शोथ से ग्रस्त हो जाता है।" काठकसंहिता (१२/६) में भी आया है कि अश्व का दान नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इसके जबड़ों में दो दन्त-पक्तियाँ होती हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण (२1२14) में सोने, परिधान, गाय, अश्व, मनुष्य, पर्यंक एवं अन्य कई प्रकार की वस्तुओं के दान करने की ओर संकेत मिलता है, और इन पदार्थों के देवता हैं अग्नि, सोम, इन्द्र, वरुण, प्रजापति आदि। तैत्तिरीय संहिता (२२/६३ ) के मत से जो व्यक्ति दो दन्तपक्तियों वाले जीव, यथा अश्व या मनुष्य को, दान रूप में ग्रहण करता है. उसे वैश्वानर को १२ कपालों में स्थालीपाक देना चाहिए। मनु (१०।८९ ) के मत से अश्व तथा अन्य बिना फटे
१. तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुख्यत: द्वापरे यज्ञमेवाहुनमेकं कलौ युगे । मनु ११८६ = शान्तिपर्व २३२।२८=पराशरं १।२३ = बायुपुराण ८२६५-६६ । यतीनां तु शमो धर्मस्त्वनाहारो बनौकसाम् । बाममेव गृहर थानां शुश्रूषा ब्रह्मचारिणाम् ॥ यम (हेमाद्रि, बाम, पू०६ में उद्धृत) ।
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