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पात्तु (गृह) प्रतिष्ठा जाता है, यथा स्वादिर (३।३।१-२६), गोभिल (३९), मानव (२।७।१-५), भारद्वाज (२।२), आपस्तम्ब (२।१७।१)। बौधायन (२०१०) ने प्रत्यवरोहण नामक कृत्य का वर्णन किया है जो सभी ऋतुओं के आरम्भ में तथा अधिक मास (मलमास) में किया जाता था, किन्तु यह कृत्य दूसरा ही है, आग्रहायणी नहीं।
शूलगव या ईशानवलि आरम्भिक रूप में यह कृत्य शिव को बैल का मांस देने से सम्बन्धित था। इसके काल के विषय में मतभेद है। आश्वलानगृह्य० (४।९।२) के अनुसार यह शरद् या वसन्त में आर्द्रा नक्षत्र में किया जाता था। किन्तु बौधायनगृ० (२।७।१-२) के मत से यह मार्गशीर्ष की पूर्णिमा या आर्द्रा नक्षत्र में सम्पादित होना चाहिए। इसी प्रकार अन्य मत भी हैं। इस कृत्य के नाम के विषय में कई व्याख्याएँ प्रसिद्ध हैं। नारायण ने कहा है कि यहाँ 'शूल' का अर्थ है वह जो नोकीला दण्ड रखे, अर्थात् शिव, जिनको 'शूली' कहा जाता है और इस यज्ञ में बैल यज्ञपशु के रूप में शूली रुद्र को दिया जाता है। हरदत्त का कहना है कि इसमें बैल पर (शिव के) दण्ड का चिह्न अंकित होता है।
इस कृत्य का वर्णन इन गृह्यसूत्रों में पाया जाता है—आश्वलायन (४।९), बौधायन (२७), हिरण्यकेशि (२२८-९), भारद्वाज (२।८-१०), पारस्कर (३.८)। लगता है कि गृह्यसूत्रों के कालों में भी बहुत लोग इस कृत्य को नहीं पसन्द करते थे, क्योंकि बौधायन (२।७।२६-२७) में आया है कि बैल न मिलने पर बकरा या भेड़ा दिया जा सकता है या ईशान के लिए केवल स्थालीपाक पर्याप्त है। काठक (५२।१) के टीकाकार देवपाल का कहना है कि केवल बकरा चढ़ाया जाता है, क्योंकि लोग वृषभ-बलि के पक्ष में नहीं हैं।' यह कृत्य अब नहीं किया जाता, अतः बहुत संक्षेप में हम इसका वर्णन कर रहे हैं। मानवगृह्य० (२।५।१-६) का कहना है-रुद्र के अनुरंजन के लिए शरद् में शूलगव कृत्य किया जाता है। रात्रि में ग्राम की उत्तर-पूर्व दिशा में कुछ दूर पर बैलों के बीच में एक यूप गाड़ दिया जाता है। स्विष्टकृत् अग्नि के होम के पूर्व (अर्थात् पके हुए चावल के साधारण होम के उपरान्त) पत्तियों की आठ दोनियों (द्रोणों) में रक्त भरकर दिक्पालों को दिया जाता है और आठ दोने अनुवाक मन्त्रों के साथ मध्यवर्ती दिशाओं को दिये जाते हैं। बिना पका हुआ उपहार ग्राम में नहीं लाया जाता। पशु के अवशेष चिह्न (चर्मसहित) पृथिवी में गाड़ देने चाहिए।
वास्तु-प्रतिष्ठा इस कृत्य का अर्थ है नवीन गृह का निर्माण एवं उसमें प्रवेश। नये मकान के निर्माण के विषय में गृह्यसूत्रों (आश्वलायन २१७-९, शांखायन ३।२-४, पारस्कर ३।४, आपस्तम्ब १७।१-१३, खादिर ४।२।६-२२ आदि) में पर्याप्त वर्णन है । आश्वलायन (२१७) के मतानुसार सर्वप्रथम स्थल की परीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि स्थल क्षाररहित होना चाहिए, उसमें ओषधियाँ (वनस्पतियाँ.), कुश, वीरण तृण, घास जमी रहनी चाहिए। उसमें से कँटीले पौधे तथा ऐसी जड़ें, जिनसे दूध निकलता हो, निकाल बाहर करनी चाहिए और अपामार्ग, तिल्वक आदि पौधे भी निकाल देने चाहिए। उस स्थल पर चारों ओर से पानी आकर दाहिनी ओर बहता हुआ पूर्व दिशा में निकल जाना चाहिए। ऐसे
४. अब यदि गां न लभते मेषमजं वालभते। ईशानाय स्थालीपाकं या अपयति तस्मादेतत्सर्व करोति यद् गवा कार्यम् ॥ बौ० गु० २।७।२६-२७ । अवदानहोमान्तत्वं च छागपक्ष एव। गोः पुनरुत्सर्ग एव लोकविरोधात्। देवपाल (काठकगु० ५२॥१)।
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