________________
कुछ अयान
W
८५) एवं शतपथब्राह्मण (९।३।१।२६ ) और पुनः वाजसनेयी संहिता ( १७/८६ ) के मन्त्रों का पाठ होता है और अन्त म ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है।
कौशिकसूत्र (१४०) ने राजाओं के लिए इन्द्र के सम्मान में एक उत्सव करने की विधि का वर्णन किया है। यह उत्सव भाद्रपद या आश्विन के शुक्लपक्ष की अष्टमी को किया जाता है। इसमें श्रवण नक्षत्र में एक झंडा खड़ा किया जाता है । याज्ञवल्क्य ( १।१४७) ने इन्द्र का झंडा फहराने एवं उतारने के दिन को अनध्याय (छुट्टी) घोषित किया है। अपरार्क ने गर्ग को उद्धृत कर बताया है कि राजा द्वारा पताका भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वादशी को फहरायी जाती है (जब कि चन्द्र उत्तराषाढ़, श्रवण या घनिष्ठा में रहता है) तथा माद्रपद की पूर्णमासी या भरणी को उतारी जाती है । कृत्यरत्नाकर ( पृ० २९२-९३ ) में आया है कि इस उत्सव के दिनों में ईख के टुकड़ों के बने इन्द्र, शची ( इन्द्राणी या इन्द्र की स्त्री) एवं जयन्त ( इन्द्र के पुत्र) की मूर्तियों ( आकृतियों) की पूजा होती है, पताकाएँ शनिवार या मंगल या जन्म-मरण के अशौच के दिन या भूकम्प के दिन नहीं खड़ी की जाती हैं। आदिपर्व (६३।१-२९ ) से पता चलता है कि इस उत्सव (इन्द्रमह) का प्रारम्भ उपरिचर वसु ने किया था। वहाँ ऐसा आया है कि इन्द्र ने राजा को वानप्रस्थ ग्रहण करने से रोका और चेदि राज्य पर राजा रूप में बने रहने को विवश किया। इन्द्र ने राजा को एक बाँस का डण्डा प्रीतिउपहार के रूप में दिया । राजा ने कृतज्ञता प्रकाशित करने के लिए उस ढण्डे को पृथिवी में गाड़ दिया। तब से प्रति वर्ष राजा तथा अन्य साधारण लोग बाँस के डण्डे पृथिवी में गाड़ने लगे और दूसरे दिन उसमें सुगन्धित द्रव्य एवं आभूषण आदि बांधकर मालाएँ लटकाने लगे। यह सम्भव है कि चैत्र मास के प्रथम दिन दक्षिण भारत एवं अन्य स्थानों में बाँस गाड़ने की जो प्रथा है, वह सम्भवतः इन्द्र के सम्मान में ध्वजा खड़ी करने की परम्परा की ही द्योतक हो । ब्रह्मसंहिता ( अध्याय ४३ ) ने इन्द्रमह उत्सव मनाने की विधि का वर्णन लगभग ६० श्लोकों में किया है। हम स्थानाभाव से उस विधि का वर्णन नहीं कर रहे हैं।
आश्वयुजी
गौतम (८/१९ ) ने अपने ४० संस्कारों के अन्तर्गत सात पाकयज्ञों में आश्वयुजी की भी परिगणना की है। आश्वलायनगू० (२।२।१-३) ने इस कृत्य का वर्णन यों किया है-- आश्वयुज अर्थात् आश्विन की पूर्णिमा को आश्वयुजी कृत्य किया जाता है। घर को अलंकृत करके, स्नानोपरान्त स्वच्छ श्वेत वस्त्र धारण कर पका हुआ भोजन "पशुपतये शिवाय शंकराय पूषातकाय स्वाहा " मंत्र के साथ पशुपति को देना चाहिए। चावल एवं घृत मिलाकर उसे अञ्जलि से "ऊनं मे पूर्यतां पूर्ण मे मोपसदत् पृषातकाय स्वाहेति" मन्त्र के साथ देना चाहिए।
शांखायनगृह्य (४।१६) का कहना है कि इस कृत्य में घृत की आहुतियाँ अश्विनो, अश्वयुक् नक्षत्र के दोनों तारों, आश्विन की पूर्णिमा, शरद् एवं पशुपति को दी जानी चाहिए; आज्य का दान ॠग्वेद के मन्त्र "आ गावो अग्मन्" के साथ होना चाहिए। उस दिन रात्रि में बछड़े अपनी माताओं का दूध पीने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। पारस्करगृ० ( २।१६ ) ने इस कृत्य को "पूषातकाः" कहा है, गोमिलगृहा० (३२८/१) ने 'पूषातक' नाम दिया है। और देखिए खादिरगृ० ( ३।३।१-५) एवं वैखानस ( ४१९ ) ।
आग्रयण
बहुत-से गृह्यसूत्रों में आश्वयुजी के उपरान्त आग्रयण कृत्य का वर्णन हुआ है। गोमिलस्मृति (पद्म, ३।१०३ ) एवं मनु (४/२७) ने इसे क्रम से नवयज्ञ एवं नवसस्येष्टि कहा है। यह वह कृत्म है जिसमें "नव फल ( उपज) सर्वप्रथम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org