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दान की व्याख्या
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ब्राह्मण को दान का पात्र नहीं माना है। बृहद्यम ( ३।३४।३८) ने भी कुपात्रों के नाम गिनाये हैं, यथा कोढ़ी, न अच्छे होनेवाले रोग से पीड़ित, शूत्रों का यज्ञ करानेवाले, देवलक, वेद बेचनेवाले ( पहले से शुल्क निश्चित करके वेद पढ़ाने वाले) ब्राह्मणों को न तो श्राद्ध में बुलाना चाहिए और न उन्हें दान देना चाहिए। बृहद्यम ने पुनः लिखा है कि निकृष्ट कर्म करनेवाले, लोमी, वेद, सन्ध्या आदि कर्मों से हीन, ब्राह्मणोचित धर्मों से च्युत, दुष्ट एवं व्यसनी ब्राह्मणों को दान नहीं देना चाहिए। इसी प्रकार कुपात्रों एवं सुपात्रों की जानकारी के लिए देखिए वनपर्व (२००१५-९), बृहत्पराशर (८, पृ० २४१-२४२), गौतम ( ३, पृ० ५०८-५०९) आदि । वैश्वदेव के उपरान्त सबको भोजन देना चाहिए। विष्णुधर्मोत्तर ने लिखा है कि भोजन एवं वस्त्र के दान में मनुष्य की आवश्यकता देखनी चाहिए न कि उसकी जाति । किसी सच्चे प्रार्थी को देखते ही जिसके मुख पर सुख की लहरें उत्पन्न हो जाती हैं और जो प्रेमपूर्वक एवं सम्मान के साथ देता है, वह वास्तविक श्रद्धा की अभिव्यक्ति करता है। आदर से देनेवाले एवं आदर से लेनेवाले स्वर्ग प्राप्त करते हैं और इस नियम के अपवादी नरक में जाते हैं ( मनु ४।२३५ ) ।
बेय-दान के पदार्थों एवं उपकरणों के विषय में बहुत से नियम बने हैं। अनुशासनपर्व (५०१७ ) के मत से संसार के सर्वश्रेष्ठ प्यारे पदार्थ तथा जिसे व्यक्ति बहुत मूल्यवान् समझता है उसका गुणवान् व्यक्ति को दिया जाना अक्षय गुण एवं पुण्य देनेवाला दान कहा जाता है। देवल के मत से वह वस्तु देय है जिसे दाता ने बिना किसी को सताये, चिन्ता एवं दुःख दिये स्वयं प्राप्त किया हो, वह चाहे छोटी हो या मूल्यवान् हो । देय की बड़ाई या छोटाई अथवा न्यूनता या अधिकता पर पुण्य नहीं निर्भर रहता, वह तो मनोभाव, दाता की समर्थता तथा उसके धनार्जन के ढंग पर निर्भर रहता है। श्रद्धा से जो कुछ सुपात्र को दिया जाय वह सफल देय है, किन्तु अश्रद्धा से या कुपात्र को दिया गया घन निष्फल होता है । अपनी समर्थता के अनुसार देना चाहिए।'
देय पदार्थों में कुछ उत्तम, कुछ मध्यम एवं कुछ निकृष्ट माने जाते हैं । उत्तम पदार्थ हैं- भोजन, दही, मधु, रक्षा, गाय, भूमि, सोना, अश्व एवं हाथी । मध्यम हैं—विद्या, आश्रयगृह, घरेलू उपकरण ( यथा पलंग आदि ), औषधें तथा निकृष्ट हैं— जूते, हिंडोले, गाड़ियाँ, छत्र (छाता), बरतन, आसन, दीपक, लकड़ी, फल या अन्य जीर्णशीर्ण वस्तुएँ (देखिए देवल, अपरार्क, पृ० २८९-९० में उद्धृत एवं हेमाद्रि, दान, पृ० १६) । याज्ञवल्क्य ( १।२१०-११ ) की तालिका भी अवलोकनीय है। ऊपर की तालिका एवं याज्ञवल्क्य की तालिका में कोई मौलिक भेद नहीं है, अतः हम उसे यहाँ उद्धृत नहीं कर रहे हैं। तीन प्रकार के देय सर्वोत्तम कहे गये हैं, यथा गाय, भूमि एवं सरस्वती (विद्या) और इन्हें अतिवान कहा जाता है ( वसिष्ठधर्मसूत्र २९।१९ एवं बृहस्पति १८ ) । वसिष्ठधर्मसूत्र ( २९।१९ ), मन् (४/२३३), अत्रि (३४०) एवं याज्ञवल्क्य (१।२१२) का कहना है कि विद्या सर्वश्रेष्ठ देय है, अर्थात् यह जल, भोजन, गाय, मूजि, वस्त्र, तिल, सोने एवं मधु से श्रेष्ठ है। किन्तु अनुशासनपर्व (६२/२) एवं विष्णुधर्मोत्तर ( अपरार्क, पृ० ३६९ में उद्धृत) की दृष्टि में भूमि का दान सर्वश्रेष्ठ है। विष्णुधर्म सूत ने अभयदान को सर्वश्रेष्ठ माना है। कुछ पदार्थों का दान महादान कहा जाता है, जिसका वर्णन हम आगे करेंगे।
बान-प्रकार-दान के प्रकार हैं निस्व (आजनिक, देवल के मत से), नैमित्तिक एवं काम्य । जो प्रतिदिन दिया
८. अन्यायाधिगतां वस्वा सकलां पृथिवीमपि । श्रद्धावर्जमपात्राय न कांचिद् भूतिमाप्नुयात् ।। प्रदाय शाकमुष्टि वा भद्धा भक्तिसमुद्यताम् । महते पात्रभूताय सर्वाभ्युदयमाप्नुयात् ॥ देवल ( अपरार्क २९०); सहल - शक्तिश्च शतं शतशक्तिर्व शापि च । बखादपश्च यः शक्त्या सर्वे तुल्यफलाः स्मृताः ॥ आश्वमेधिकपर्व ( ९० । ९६-९७); एकt गो वशगुर्वद्या यश दद्याच्च गोशती । शतं सहस्रगुर्वद्यात्सर्वे तुल्यफला हि ते ॥ अग्निपुराण (२११।१) ।
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