Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

View full book text
Previous | Next

Page 476
________________ दान के काल और देश ४५३ मरें और अन्य लोग घरों में दान लेकर मीज़ उड़ायें” यह बुद्धिमानी नहीं है। यही बात अनुशासनपर्व (३७१२-३) में भी पायी जाती है। हेमाद्रि ने शिवधर्म' को उद्धृत कर लिखा है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने धन को पांच भागों में करके तीन भाग अपने तथा अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में लगाये और शेष दो भाग धर्म-कार्य मे, क्योंकि यह जीवन क्षणभंगुर है। अस्वीकार के योग्य दान-कुछ पदार्थों को दान रूप में स्वीकार करना वजित माना गया है। श्रुति ने दो दन्तपंक्तियों वाले पशुओं को दान रूप में ग्रहण करना वजित किया है (जैमिनि ६।७।४ पर शबर की व्याख्या) वसिष्ठधर्मसूत्र (१३।५५) ने ब्राह्मणों के लिए अस्त्र-शस्त्र, विषैले पदार्थ एवं उन्मत्तकारी पदार्थों का ग्रहण वजित ठहराया है। मनु (४११८८) का कहना है कि अविद्वान् ब्राह्मण को सोने, भूमि, अश्वों, गाय, भोजन, वस्त्र, तिल एवं घृत का दान नहीं लेना चाहिए, यदि वह लेगा तो लकड़ी की माँति भस्म हो जायगा (अर्थात् नष्ट हो जायगा)। हेमाद्रि (दान, पृष्ठ ५७) ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत कर लिखा है कि ब्राह्मण को चाहिए कि वह भेड़ों, अश्वों, बहुमूल्य रत्नों, हाथी, तिल एवं लोहे का दान न ले, यदि ब्राह्मण मृगचर्म या तिल स्वीकार करता है तो वह पुनः पुरुष रूप से नहीं जन्मेगा, और वह जो मरे हुए की शय्या, आभूषण एवं परिधान ग्रहण करता है वह नरक में जायगा। दान के काल-दान करने के उचित कालों के विषय में बहुत-से नियम बने हुए हैं। प्रति दिन के दान-कर्म के अतिरिक्त अन्य विशिष्ट अवसरों के दान की व्यवस्था करते हुए धर्मशास्त्रकारों ने लिखा है कि प्रति दिन के दानकर्म से विशिष्ट अवसरों के दान-कर्म अधिक सफल एवं पुण्यप्रद माने जाते हैं (याज्ञवल्क्य १२२०३) । लघु-शातातप (१४५-१५३) ने लिखा है कि अयनों (सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायन) के प्रथम दिन में, षडशीति के प्रारम्भ में, सूर्य-चन्द्र ग्रहणों के समय दान अवश्य देना चाहिए, क्योंकि इन अवसरों के दान अक्षय फलों के दाता माने जाते हैं।'' वनपर्व (२००।१२५) ने भी यही कहा है। अमावस्या के दिन, तिथिक्षय में, विषुव के दिन (जब रात-दिन बराबर हों) एवं व्यतिपात के दिन का दान क्रम से सौ गुना, सहस्र गुना, लाख गुना एवं अक्षय फल देनेवाला है। संवर्त (२०८२०९) का कहना है कि अयन, विषुव, व्यतिपात, दिनक्षय, द्वादशी, संक्रान्ति को दिया हुआ दान अक्षय फल देनेवाला होता है ; इसी प्रकार उपर्युक्त दिनों या तिथियों के अतिरिक्त रविवार का दिन स्नान, जप होम, ब्राह्मण भोजन, उपवास एवं दान के लिए उपयुक्त ठहराया गया है। शातातप (१४६), विश्वरूप (याज्ञवल्क्य ११२१४-२१७), ९. तस्मात् त्रिभागं वितस्य जीवनाय प्रकल्पयेत् । भागद्वयं तु धर्मार्थमनित्यं जीवितं यतः॥ हेमाद्रि (बान, पृ० ४४) एवं दानमयूख (पृ० ५) द्वारा उद्धृत; भागवत, शुक्राचार्य का राजा बलि के प्रति उपदेश (३७।१९।८)। १०. अपने विषुवे चैव षडशीतिमुखेषु च। चन्द्रसूर्योपरागे च दतमक्षयमुच्यते॥ वनपर्व २००।१२५; अयनादौ सदा दद्याद व्यमिष्टं गृहे वसन्। षडशीतिमुखे चैव विमुक्ते चन्द्रसूर्ययोः॥ लघुशातातप (अपरार्क, पृ० २९१ में शातातप नाम से उद्धृत)। मिथुन, कन्या धनु एवं मीन राशियों में जब सूर्य का प्रवेशहोता है तो उसे षडशीति कहते हैं; बृहत्पराशर पृ० २४५ एवं अपराक पृ० २९२, जहाँ वसिष्ठ, अग्निपुराण (२०९।९-१०) उद्धृत हैं। ११. शतमिन्दुक्षये दानं सहस्र तु दिनक्षये। विषुवे शतसाहस्र व्यतीपाते त्वनन्तकम् ॥ लघुशातातप (१५०), अपराक द्वारा व्यास के उद्धरण के रूप में उद्धृत। जब तीन तिथियाँ एक ही दिन पड़ जाती हैं तो इसे दिनक्षय कहा जाता है, क्योंकि बीच वाली तिथि पंचांग में दबा दी जाती है (देखिए अपरार्क प० २९२); व्यतिपात २७ योगों में, जिनका आरम्भ विष्कम्भ से होता है, एक योग है, इसकी परिभाषा यों दी गयी है-श्रवणाश्विधनिष्ठा नागदेवतमस्तके। यद्ममा रविवारेण व्यतीपातः स उच्यते ॥ (वृद्ध मनु, अपरार्क पृ० ४२६) अर्थात् जब चन्द्र श्रवण, अश्विनी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614