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धर्मशास्त्र का इतिहास
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अतिथि सत्कार के नियम ये हैं—आगे बढ़कर स्वागत करना, पैर धोने के लिए जल देना, आसन देना, दीपक जला कर रख देना, भोजन एवं ठहरने का स्थान देना, व्यक्तिगत ध्यान देना, सोने के लिए खटिया - बिछावन देना और जाते समय कुछ दूर तक पहुँचा देना (देखिए गौतम ५।२९ - ३४ एवं ३७, आप० ६० २।३।६।७ -१५, मनु ३१९९, १०७ एवं ४।२९, दक्ष ३।५-८ ) । वनपर्व ( २००/२२ - २५ ) एवं अनुशासनपर्व ने आतिथ्य की महत्ता गायी है । अनुशासनपर्व (७।६) में आया है - "आतिथ्यकर्ता को अपनी आँख, मन, मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन ( जाते समय साथ-साथ कुछ दूर तक जाना ) देने चाहिए; इस यज्ञ ( आतिथ्य ) में यही पांच प्रकार की दक्षिणा है ।" आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।४।१६ - २१) का कहना है कि यदि वेद न जानने वाला ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य घर आ जाय तो उसे आसन, जल एवं भोजन देना चाहिए, किन्तु उठकर आवभगत नहीं करनी चाहिए, किन्तु यदि शूद्र अतिथि बनकर ब्राह्मण के घर आये तो ब्राह्मण को उससे काम लेकर उसे भोजन देना चाहिए, किन्तु यदि उसके पास कुछ न हो तो उसे अपना दास भेजकर राजकुल से सामग्री मँगानी चाहिए। हरदत्त ने एक रोचक टिप्पणी की है कि राजा को चाहिए कि शूद्रों के अतिथि सत्कार के लिए ग्राम-ग्राम में कुछ धन या अन्न रखने की व्यवस्था करे ।" गौतम ( ५/३३), मनु ( ३|१०१ ), वनपर्व ( २/५४ ), उद्योगपर्व ( ३६।३४), आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २/२/४।१३-१४), याज्ञवल्क्य (१।१०७), बौधायनगृह्यसूत्र ( २/९/२१-२३ ) का कहना है कि यदि गृहस्थ के पास और कुछ सामग्री न हो तो उसे जल, निवास, घास एवं मीठी बोली से ही सम्मान करना चाहिए। गौतम (५/३७-३८ ) के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जाति के अतिथियों का क्रम से 'कुशल', 'अनामय' एवं 'आरोग्य' शब्दों से स्वागत करना चाहिए। शूद्रों से भी आरोग्य कहना चाहिए ( मनु २।१२७ ) ।
अतिथि सत्कार के पीछे एकमात्र प्रेरक शक्ति सार्वभौम दया भावना थी। किन्तु इस कर्तव्य की भावना को महत्ता देने के लिए स्मृतियों ने अन्य प्रेरक भी जोड़ दिये हैं। शांखायनगृह्यसूत्र ( २।१७।१ ) का कहना है-“खेत में गिरा हुआ अन्न इकट्ठा करके जीविका चलाने वाले एवं अग्निहोत्र करने वाले गृहस्थ के घर में यदि ब्राह्मण बिना आतिथ्य सत्कार पाये रह जाता है तो वह उस गृहस्थ के सारे पुण्यों को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् हर लेता है।" यही बात मनु ( ३।१००) भी कहते हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २/३/६/६ ) के मत से अतिथि सत्कार द्वारा स्वर्ग एवं विपत्ति-मुक्ति प्राप्त होती है। देखिए आपस्तम्बधर्मसूत्र (२२/७/१६), विष्णुधर्मसूत्र (६७।३३), शान्तिपर्व ( १९१।१२), विष्णुपुराण ( ३।९।१५), मार्कण्डेयपुराण (२९।३१), ब्रह्मपुरण ( ११४।३६ ) । ब्रह्मपुराण का कथन है--यदि अतिथि निराश होकर लौट जाता है तो वह अपने पाप गृहस्थ को देकर उसके पुण्यों को लेकर जाता है । वायुपुराण ( ७१/७४) एवं बृहत्संहिता का कहना है कि योगी एवं सिद्ध लोग मनुष्यों के कल्याण के लिए विभिन्न स्वरूप धारण कर घूमा करते हैं, अतः दोनों हाथ जोड़कर अतिथि का स्वागत करना चाहिए, यदि कोई
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६. चक्षुर्वद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम् । अनुब्रजेवुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः ॥ अनुशासन ७१६ । ७. ब्राह्मणायानधीयानायासनमुदकमन्नमिति देयं न प्रत्युत्तिष्ठेत । राजन्यवैश्यौ च । शूद्रमभ्यागतं कर्मणि नियुज्यात् । अथास्मै दद्यात् । दासा वा राजकुलादाहृत्य तिथिवच्छूद्रं पूजयेयुः ॥ आप० ध० २२२२४१६-२१; अतएव ज्ञायते शूद्राणामतिथीनां पूजार्थं ब्रीह्यादिकं राज्ञा ग्रामे ग्रामे स्थापयितव्यमिति । हरवत्त ( आपस्तम्बधर्मसूत्र २२४।२१) ।
८. तस्य पूजायां शान्तिः स्वर्गश्च । आप० ष० २|३|६| ६; देखिए विष्णुधर्मसूत्र ६७।३२ । अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते । स दत्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥ मार्कण्डेय २९/६; सिद्धा हि विप्ररूपेण चरन्ति
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