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उपाकर्म (भावणी)
४३७ पूर्णमासी गापंचमी को ना कुछ लोगों के मत ते त्रावण की पूर्णमासी को किया जाना चाहिए। बौधायनगृ० (३।१२) के मत से उपाकर्म श्रावण या आषाढ़ की पूर्णमासी को सम्पादित करना चाहिए। मनु (४।९५) ने उपाकर्म के लिए श्रावण या भाद्रपद की पूर्णमासी ठीक समझी है। इसी प्रकार विभिन्न मत हैं। इसी से मिताक्षरा ने अपने-अपने गृह्यसूत्र के अनुसार चलने को कहा है। संस्कारप्रकाश (पृ० ४९७-४९८), स्मृतिमुक्ताफल (पृ० ३२-३३), निर्णयसिन्धु (११४-१२०) ने विभिन्न तिथियों का निराकरण किया है। श्रावण मास ही वेदाध्ययन के लिए क्यों चुना गया, इसका कारण बताना कठिन है। हो सकता है, वर्षा हो जाने से यह समय अपेक्षाकृत ठण्डा रहता है, ब्राह्मण लोग बहुधा इन दिनों घर पर ही रहते हैं और प्रकृति में हरियाली के कारण सौन्दर्य निखर उठता है। श्रावण मास की पूर्णमासी सर्वोत्तम दिन समझा जाता है ('सोम' दूसरे अर्थ में ब्राह्मणों का राजा कहा जाता है)। पूर्णमासी के अतिरिक्त हस्त नक्षत्र की शुक्ल पंचमी तिथि सर्वोत्तम मानी जाती है। श्रवण नक्षत्र का योग होने के कारण श्रावण की पूर्णमासी को श्रावणी मी कहते हैं, अत: वेदाध्ययन के वार्षिक सत्र-प्रारम्भ के लिए श्रवण नक्षत्र को विशिष्ट महत्ता
लगी। वास्तव में श्रवण नक्षत्र का उपाकर्म से कोई सीधा सम्पर्क नहीं था। क्योंकि बहुत-से सूत्रों ने उसका उल्लेख तक नहीं किया है। गोभिल एवं खादिर ने श्रावण की श्रावणी (पूर्णमासी) को न मानकर भाद्रपद एवं हस्त नक्षत्र को उपाकर्म के लिए महत्ता दी है। हस्त के देवता हैं सविता, वेदाध्ययन गायत्री मंत्र से आरम्भ होता है, अतः वेदाध्ययन के लिए उपाकर्म का सम्बन्ध हस्त नक्षत्र से हो सकता है।
उपाकर्म प्रातःकाल किया जाता है। यह ब्रह्मचारियों, गृहस्थों एवं वानप्रस्वों द्वारा सम्पादित होता है। अध्यापकइसे शिष्यों (चाहे वे ब्रह्मचारी हों या न हों) के साथ करते हैं और अपनी गृह्याग्नि में ही होम करते हैं (पारस्करगृ० २।११) । पारस्करगृ० के टीकाकार कर्क के कथनानुसार यदि अध्यापक या गुरु के पास शिष्य न हों तो उसे गृह्याग्नि में उपाकर्म करने का कोई अधिकार नहीं है। हरिहर का कहना है कि साधारण लौकिक अग्नि में वेदपाठी छात्र के साथ उपाकर्म करना प्रामाणिक नहीं है, यह केवल व्यवहार मात्र है।
विधि-आश्वलायनगृह्यसूत्र (३।५।४-१२) में उपाकर्म की विधि यों वर्णित है-दो आज्यभागों (घृत के कुछ अंश) की आहुतियां देने के उपरान्त निम्नलिखित देवताओं को आज्य देना चाहिए, यथा सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, धारणा (स्मृति), सदसस्पति, अनुमति, छन्द एवं ऋषि। इसके उपरान्त जौ के आटे (सक्तु) में दही मिलाकर आहुतियां ऋग्वेद के मंत्रों के साथ दी जाती हैं, ये मन्त्र हैं--१।१।१, १।१९१३१६, २।४३१३, ३।६२।१८, ४१५८।११, ५६८७।९, ६७५।१९, ७।१०४।२५, ८.१०३।१४, ९।११४१४, १०११९१।४। वेदाध्ययन प्रारम्भ करते समय, जब अन्य शिष्य गरु के साथ हो लेते हैं (उसका हाथ पकड़ कर बैठ जाते हैं तब उसे देवताओं के लिए हवन करना चाहिए, तदनन्तर स्विष्टकृत् अग्नि को आहति देनी चाहिए और सक्तु (जौ का आटा) के साथ मिश्रित दही खाकर मार्जन करना चाहिए। अग्नि के पश्चिम ऐसे दर्भासन पर बैठकर जिसकी नोके पूर्व की ओर हों, कुश-पवित्रों को जलपात्र में रख देना चाहिए, इसके उपरान्त आचार्य महोदय ब्रह्माजलि के रूप में हाथों को जोड़कर शिष्यों के साथ निम्न पाठ करते हैं-ओम् के साथ तथा केवल तीनों व्याहृतियां, सावित्री मन्त्र (ऋग्वेद ३।६२१ १०) का तीन बार पाठ तथा ऋग्वेद का प्रारम्भिक अंश (केवल एक मन्त्र या एक अनुवाक)।
अन्य गह्यसूत्रों में मन्त्रों, देवताओं एवं आहुति के पदार्थों के विषय में बहुत-से मत हैं। हम यहाँ स्थानाभाव के कारण मतमतान्तर में नहीं पड़ेंगे। पाठकों से अनुरोध है कि विस्तार के लिए ये पारस्करगृह्यसूत्र (२०१०) का अध्ययन करें।
आपस्तम्बगृह्यसूत्र (८।१-२) ने बहुत संक्षेप में उपाकर्म का वर्णन किया है। उसका कहना है कि वेदाध्ययन प्रारम्भ एवं समाप्त करने के कृत्यों के समय काण्ड (तैत्तिरीयसंहिता के भाग) के ऋषि ही देवता होते हैं, उन्हीं को
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