________________
पक्षाव का इतिहास प्रमुखता दी जाती है और सर स्थान पर सदसस्पति की पूजा होती है। सुदर्शनाचार्य ने इस गृहसूत्र के दोनों सूत्रों की लंबी व्याख्या की है जो संक्षेप में यों है-सम्पूर्ण वेद (कृष्ण यजुर्वेद) के अध्ययन का प्रारम्भ (उपाकर्म) श्रावण की पूर्णमासी को होता है, ऋषियों का तर्पण होता है, जिन्हें आज्य की नौ आहुतियां दी जाती हैं और नवीं आहुति 'सदसस्पतिम्' (ऋग्वेद १११८१६-आपस्तम्बीय मन्त्रपाठ १।९।८) के साथ दी जाती है। किन्तु जब किसी काण्ड का प्रारम्भ होता है तो दूसरा उपाकर्म होता है और इसके लिए भी होम किया जाता है।
क्रमश: गृह्यसूत्रों में वर्णित सीधी उपाकर्म-विधि में बहुत-से निरर्थक विस्तार जुड़ते चले गये। आधुनिक काल में बड़े विस्तार के साथ उपाकर्म सम्पादित होता है। स्थानाभाव के कारण हम यहाँ कोई विस्तार नही दे पा रहे हैं
उपाकर्म कृत्य के उपरान्त गृह्यसूत्रों ने अनभ्याय (छुट्टी) की व्यवस्था दी है, किन्तु अनध्याय की अवधि के विषय में मतैक्य ही है। पारस्करगृह्यसूत्र (२।१०) ने तीन दिन-रात के लिए अनध्याय सूचित किया है और कहा है उस अवधि में बाल बनवाना एवं नाखून कटवाना वर्जित है। कुछ लोगों के मत से उत्सर्जन तक अर्थात् लगभग ५॥ महीने तक के लिए बाल एवं नाखून कटवाना वजित माना गया है। शांखायनगृह्यसूत्र (४०५।१७) एवं मनु (५११९) ने उपाकर्म एवं उत्सर्जन के उपरान्त तीन दिनों की छुट्टी (अनध्याय) की बात कही है। अन्य मतों के लिए देखिए गो लगृह्यसूत्र (३।३।९ एवं ११), भारद्वाजगृह्यसूत्र (३६८)।
उत्सर्जन
काल एवं तिषि-उत्सर्जन के काल के विषय में भी विभिन्न मत हैं। बौधायनगृ. (१।५।१६३) ने पौष मा माप की पूर्णमासी तिथि को उपयुक्त माना है। आश्वलायनगृ० (३।५।१४) ने वेदाध्ययन के लिए उपाकर्म से उत्सर्जन तक ६ मास की अवधि ठहरायी है, अतः यदि उपाकर्म श्रावणी (श्रावण की पूर्णिमा) को सम्पादित हुआ तो माघ की पूर्णिमा को उत्सर्जन होगा। पारस्करगृ० (२०११) के मत से ५।। या ६ मास तक वेदाध्ययन करके गुरु एवं शिष्यों को उत्सर्जन (उत्सर्ग अर्थात् वेदाध्ययन की आवधिक समाप्ति) करना चाहिए। इसी प्रकार गोभिलगृ० (३।३।१४), वादिरगृ० (३।१२४), शांखायन गृह्म० (४।६।१) ने क्रम से तैष (पौष) की पूर्णमासी, वही अर्थात् पौष की पूर्णिमा, माघ के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उत्सर्जन की तिथि माना है। इसी प्रकार अन्य धर्मशास्त्रकारों ने अपने मत दिये है, जिनमें काल ४॥, ५ था ५॥, ६ या ६॥ महीनों तक बतलाया गया है। फलतः पौष या माघ मास ही उत्सर्जन के लिए उपयुक्त माना गया है।
विधि-आश्वलायनगृह्य० (३।५।१३) ने उपाकर्म से उत्सर्जन तक की विधि का वर्णन किया है। उत्सर्जन में घृत के स्थान पर पके हुए चावल की आहुतियां दी जाती है, उसके उपरान्त स्नान तथा देवताओं, आचार्यों, ऋषियों, पितरों (जैसा कि ब्रह्मयज्ञ में होता है) को तर्पण किया जाता है। नारायण के मत से उपाकर्म के समान उत्सर्जन में जी के सत्तू में दही मिश्रित करके खाना तथा मार्जन नहीं होता है। पारस्करगृह्य० (२०१२) ने उत्सर्जन की विधि इस प्रकार दी है-उन्हें (आचार्य एवं शिष्यों को) जल के किनारे (नदी, तालाब आदि पर) जाना चाहिए, देवताओं, छन्दों, वेदों, ऋषियों, प्राचीन आचार्यों, गन्धों, अन्य गुरुओं, विभाग के साथ वर्ष, पितरों, आचार्यों तथा उनके मृत सम्बन्धियों का तर्पण करना चाहिए। इसके उपरान्त सावित्री का शीघ्रता से चार बार पाठ करके कहना चाहिए'हमने (वेदाध्ययन) बन्द कर दिया। उत्सर्जन में भी उपाकर्म की भांति अनध्याय होता है और तदनतर बेदपाठ अर्थात् पढ़े हुए वेदमन्त्रों का दुहराना होता है। इस विषय में अन्य मत देखिए गोभिल (३।३।१५), मनु (४१९७) एवं याज्ञवल्क्य (१।१४)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org