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मांस-मनन विचार विष्णु एवं वसिष्ठ की उपर्युक्त उक्तियों से प्रकट होता है कि उनके समय में दो प्रकार के व्यक्ति थे; एक वे जो मांसमक्षण को वैदिक मानते थे, किन्तु वेद के कथनानुसार यज्ञादि अवसरों पर ही पशु-बलि करते थे, और दूसरे लोग वे थे जो बिना नियन्त्रण के मांस-भक्षण करते थे। मनु यह जानते थे कि श्राद्ध आदि ऐसे अवसरों पर मांस-भक्षण होता था और उन्होंने स्वयं लिखा है कि श्राद्ध के समय विभिन्न प्रकार के मांस के साथ भांति-भाँति के व्यञ्जन बनने चाहिए (३१२२७) । याज्ञवल्क्य (१२२५८-२६०) ने लिखा है कि श्राद्ध के समय ब्राह्मणों को भांति-भांति के पशुओं का मांस देने से पितरों को बहुत दिनों तक सन्तोष मिलता है।
क्रमशः मांस-मक्षण कम होता गया। वैष्णव धर्म के विकास से भी पश-बलि में कमी होती गयी। भागवत
७।१५७-८) में मांस-भक्षण वजित माना गया है। मध्य एवं वर्तमान काल में उत्तरी एवं पूर्वी भारत को (जहाँ के कुछ ब्राह्मण मछली को वजित नहीं मानते, यथा मैथिल ब्राह्मण आदि) छोड़कर अन्यत्र ब्राह्मण मांस नहीं खाते हैं। वैश्य लोग भी विशेषतः जो वैष्णव हैं, मांस नहीं खाते हैं। बहुत-से शूद्र मी मांस से दूर रहते हैं। किन्तु प्राचीन काल से ही क्षत्रिय लोग मांसभोजी रहे हैं। महाभारत में क्षत्रियों एवं ब्राह्मणों के मांस-मक्षण की चर्चाएं बहुत हुई हैं, यथा वनपर्व (५०।४) में आया है कि पाण्डवों ने विषरहित तीरों से हिरन मारे और उनका मांस ब्राह्मणों को देने के उपरान्त स्वयं खाया, युधिष्ठिर ने (सभापर्व ४११-२) मयसभा । के उद्घाटन के अवसर पर दस सहन ब्राह्मणों को वन्य सूकर एवं हिरनों के मांस भी खाने को दिये। इसी प्रकार देखिए वनपर्व (२०८।११-१२), अनुशासनपर्व (११६।३, १६-१९)। किन्तु महाभारत ने भी मनु के मनोभाव प्रकट किये हैं और कहा है कि मांस-मक्षण से दूर रहना चाहिए (अनुशासन ११५)। मनु (५।५१) ने तो यहां तक कहा है कि जो व्यक्ति पशु को मारने की सम्मति देता है, जो पशु-हनन करता है, जो अंग-अंग पृथक् करता है, जो मांस बेचता या खरीदता है, जो पकाता है, जो परोसता है और जो खाता है-इनमें सभी मारने के अपराधी होते हैं। यम ने कहा है कि मांसमोजी सबसे बड़ा पापी है, क्योंकि यदि वह न होता तो कोई भी पशु हनन न करता (आह्निकप्रकाश, पृ०
किन पक्षियों को खाया जाय और किन्हें न खाया जाय, इस विषय में गौतम (१७।२९ एवं ३४-३५), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।५।१७।३२-३४), वसिष्ठधर्मसूत्र (१४१४८), विष्णुधर्मसूत्र (५११२९-३१), मनु (५।११-१४), याज्ञवल्क्य (१११७२-१७५) आदि में लम्बी सूचियाँ हैं। कच्चा मांस खाने वाले पक्षी (गिद्ध, चील आदि), चातक, तोता, हंस, ग्रामीण पक्षी (कबूतर आदि), बक, गोहड़उर या बिल खोद-खोदकर अपना भोजन ढूंढ़ने वाले पक्षी वर्जित माने गये हैं, किन्तु जंगली मुर्ग एवं तीतर वर्जित नहीं हैं। शबर ने जैमिनि (५।३।२६-२८) की टीका में लिखा है कि अग्निचित् को (जिसने यज्ञ के लिए वेदी बना ली हो) पक्षी तब तक नहीं खाना चाहिए जब तक यज्ञ समाप्त न हो जाय।
मछली के भक्षण के विषय में कोई मतैक्य नहीं है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१०५।१७।३६-३७) के मत से चेत (मगर या घड़ियाल?) वर्जित हैं। सर्प की भाँति सिर वाली, मकर, शव खानेवाली तथा विचित्र आकृति वाली मछलियां नहीं खानी चाहिए। मनु (५।१४-१५) ने सभी प्रकार की मछलियों के भक्षण को निकृष्ट मांस-मक्षण माना है, किन्तु देवकृत्यों तथा श्राद्ध में पाठीन, रोहित, राजीव, सिंह की मुखाकृति वाली एवं वल्कल वाली मछलियों की छूट दी गयी है (५।१६)। देखिए वसिष्ठधर्मसूत्र (१४१४१-४२), गौतम (१७६३६) एवं याज्ञवल्क्य (१॥ १७७-१७८)।
दुग्ध-प्रयोग-दूध के विषय में स्मृतियों ने बहुत-से नियम बनाये हैं। गौतम (१७।२२-२६), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।५।१७।२२-२४), वसिष्ठधर्मसूत्र (१४३३४-३५), बौधायनधर्मसूत्र (१।५।१५६-१५८), मनु (५।८-९),
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