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मांस भक्षण विचार
है, क्योंकि उसका मुख अपवित्र माना गया है। मनु (१११७९) ने गाय की प्रशंसा की है जो ब्राह्मणों एवं गायों की रक्षा में अपने प्राण दे देता है वह ब्रह्महत्या-जैसे जघन्य पापों से मुक्त हो जाता है। विष्णुधर्मसूत्र (१६।१८) ने घोषित किया है कि ब्राह्मणों, गायों, स्त्रियों एवं बच्चों की रक्षा में प्राण देने वाले अछूत (बाह्य) भी स्वर्ग को चले गये।। रुद्रदामन् (एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० ४४) के शिलालेख में “गो-ब्राह्मण-हित” (गायों एवं ब्राह्मणों का कल्याण) शब्द प्रयुक्त हुआ है (ईसा के उपरान्त दूसरी शताब्दी)। और देखिए रामायण (बालकाण्ड २६१५, अरण्यकाण्ड २३॥२८) एवं मत्स्यपुराण (१०४११६) । कपिला गाय अत्यधिक मंगलकारी मानी गयी है और इसका दूध अग्निहोत्र एवं ब्राह्मणों के लिए उत्तम माना गया है, किन्तु यदि उसे शुद्र पिये तो वह नरक का भागी होता है (वृद्धगौतम, पृ० ५६८)।
कालान्तर में मांस-भक्षण के प्रति न केवल अंनिच्छा प्रत्युत घृणा का भाव भी रखा जाने लगा। शतपथब्राह्मण ने यह भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि मांसभक्षी आगे के जन्म में उन्हीं पशुओं द्वारा खाया जायगा, अर्थात् उदाहरणार्थ, जो इस जन्म में गाय का मांस खायेगातो आगे के जन्म में उसे इस जन्म वाली खायी गयी गाय खायेगी। छान्दोग्योपनिषद् (३।१७) ने तप, दया, (दान) सरलता (ऋजुता), अहिंसा एवं सत्य को प्रतीकात्मक यज्ञ की दक्षिणा माना है। इसी उपनिषद् (८।१५।१) ने पुनः कहा है कि ब्रह्मज्ञानी समस्त जीवों के प्रति अहिंसा प्रकट करते हैं। जो बहुत-से लोगों ने आगे चलकर मांस-भक्षण छोड़ दिया उसके कई कारण थे; (१) आध्यात्मिक धारणा-एक ही ब्रह्म सर्वत्र विराजमान है, (२) सभी जीव एक हैं, (३) छोटे-छोटे कीट भी उसी दैवी शक्ति के. अभिन्न्यंजन-मात्र हैं, क्योंकि (४) वे लोग जो अपनी वासनाओं एवं कठोर वृत्तियों तथा तृष्णाओं पर नियन्त्रण नहीं रखते और सार्वभौम दया एवं सहानुभूति नहीं प्रकट करते, दार्शनिक सत्यों का दर्शन नहीं कर सकते। एक अन्य कारण भी कहा जा सकता है--मांस-भक्षण से अशुद्धि प्राप्त होती है (इस विचार से भी अहिंसा के प्रति झुकाव बढ़ा)। ज्यों-ज्यों आर्य भारत के मध्य, पूर्व एवं दक्षिण में फैलते गये, जल-वायु एवं अत्यधिक साग-सब्जियों (शाक-माजियों) एवं अन्नों के कारण मांस-भक्षण में कमी पायी जाने लगी। सचमुच, यह एक आश्चर्य है कि भारतवर्ष में आज मांस-भक्षण उत्तम नहीं कहा जाता, जब कि हमारे पूर्वज ऋषि आदि मांस-भोजी थे। यह एक विलक्षण ऐतिहासिक तथ्य है और संसार के इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है। प्राचीन धर्मसूत्रों ने भोजन एवं यज्ञ के लिए जीव-हत्या की व्यवस्था की थी। आश्चर्य
कि उस समय कर्म एवं आवागमन के सिद्धान्त प्रचलित थे तब मी जीवहत्या की व्यवस्था की गयी थी। वेदान्तसूत्र (३।१।२५) में भी यज्ञ के लिए पशु-हनन अपवित्र नहीं माना गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् (६।२) ने आवागमन के सिद्धान्त का विवेचन किया है। किन्तु साथ-ही-साथ इसने उस व्यक्ति के लिए, जो बुद्धिमान् पुत्र का इच्छुक है, बैल या साँड़ या किसी अन्य पशु के मांस को चावल एवं घृत में पकाने का निर्देश किया है (६।४।१८)। गृह्य एवं धर्म सूत्रों के अनुसार कतिपय अवसरों पर न केवल अन्य पशुओं की प्रत्युत गाय की भी बलि दी जाती थी, यथा (१) श्राद्ध में (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।७।१६।२५), (२) सम्मानित अतिथि के लिए मधुपर्क में (आश्वलायनगृह्यसूत्र ११२४१२२-२६, वसिष्ठधर्मसूत्र ४१८), (३) अष्टका धार में (हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र २।१५।१, बौधायनगृह्यसूत्र २।२।५, वैखानस ४१३) एवं (४) शूलगव यज्ञ में एक बैल (आश्वलायनगृह्यसूत्र ४।९।१०)।
धर्मसूत्रों में कतिपय पशुओं, पक्षियों एवं मछलियों के मांस भक्षण के विषय में नियम दिये गये हैं। गौतम ( १७।२७।३१), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।५।१७।३५), वसिष्ठधर्मसूत्र (१४।३९-४०), याज्ञवल्क्य (१।१७७), विष्णुधर्मसूत्र (५१।६), शंख (अपरार्क, पृ० ११६७ में उद्धृत), रामायण (किष्किघाकाण्ड १७॥३९), मार्कण्डेयपुराण (३५।२-४) ने साही, खरगोश, श्वाविध् (सूअर), गोधा या गोह (एक प्रकार की छिपकली), गैडा, कछुआ को
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