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भोज्य-अभोग्य विचार
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२२८-२२९), स्मृत्यर्थसार ( पृ० ६९), मत्स्यपुराण (६७), अपरार्क ( पृ० १५१, ४२७-४३०) आदि ने नियम लिखे हैं । ग्रहण के समय भोजन करना वर्जित है। बच्चों, बूढ़ों एवं रोगियों को छोड़कर अन्य लोगों को सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण लगने के क्रम से १२ घंटा (४ प्रहर) एवं ९ घंटा (३ प्रहर) पूर्व से ही खाना बन्द कर देना चाहिए । इस नियम का पालन अभी हाल तक होता रहा है। ग्रहण आरम्भ हो जाने पर स्नान करना, दान देना, तर्पण करना एवं श्राद्ध करना आवश्यक माना जाता है। ग्रहणोपरान्त स्नान करके भोजन किया जा सकता है। यदि ग्रहण के साथ सूर्यास्त हो जाय तो दूसरे दिन सूर्य को देखकर तथा स्नान करके ही भोजन करना चाहिए। यदि ग्रहणयुक्त चन्द्र उदित हो तो दूसरे दिन भर भोजन नहीं करना चाहिए। ये नियम पर्याप्त प्राचीन हैं ( विष्णुधर्मसूत्र ६८।१ - ३ ) । ऋग्वेद (५१४०।५ - ९) में भी सूर्य ग्रहण वर्णित है, किन्तु वहाँ यह असुर द्वारा लाया गया कल्पित किया गया है। असुर स्वर्भानु ने सूर्य पर अन्धकार डाल दिया, ऐसा काठकसंहिता (११।५ ) एवं तैत्तिरीय संहिता ( २/१/२/२ ) में आया है। शांखायनब्राह्मण (२४।३) एवं ताण्ड्य ब्राह्मण ( ४/५/२, ४।६।१३ ) भी ग्रहण की चर्चा करते हैं। अथर्ववेद (१९/९/१० ) में सूर्य और राहु एक साथ ला खड़े कर दिये गये हैं। छान्दोग्योपनिषद् ( ८|१३|१ ) में आया है - "ब्रह्मलोक में जाते समय सचेत आत्मा शरीर को उसी प्रकार हिलाकर छोड़ देता है जिस प्रकार घोड़ा अपने बालों को छिटका देता है या राहु के मुख से चन्द्र छुटकारा पाता है। "
विष्णुधर्मसूत्र (६८।४-५ ) ने व्यवस्था दी है कि जब गाय या ब्राह्मण पर कोई आपत्ति आ जाय या राजा पर क्लेश पड़े या उसकी मृत्यु जाय तो भोजन नहीं करना चाहिए।
विहित और निषिद्ध
क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए तथा किसका खाना चाहिए और किसका नहीं खाना चाहिए; इस विषय में विस्तृत नियम बने हैं। यों तो सभी स्मृतियों ने भोजन के विधि-निषेध के विषय में व्यवस्थाएं दी हैं, किन्तु गौतम ( १७ ), आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १५ १६ १७ – १।६।१९ ), वसिष्ठधर्मसूत्र (१४), मनु ( ६ । २०७-२२३) तथा याज्ञवल्क्य (१।१६७-१८१) ने विस्तार के साथ चर्चा की है । शान्तिपर्व (अध्याय ३६ एवं ७३ ), कूर्मपुराण (उत्त
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अध्याय १७), पद्म ( आदिखण्ड, अध्याय ५६) तथा अन्य पुराणों ने भी नियम बतलाये हैं । निबन्धों में स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ४१८-४२९), गृहस्थरत्नाकर ( पृ० ३३४-३९५), मदनपारिजात ( पृ० ३३७-३४३), स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० ४३३- ४५१), आह्निकप्रकाश ( पृ० ४८८-५५० ) ने ग्राह्य-अग्राह्य के विषय में विशद वर्णन उपस्थित किया है। हम क्रम से इन नियमों की चर्चा करेंगे।
अपरार्क ( पृ० २४१ ) ने भविष्यपुराण को उद्धृत कर वर्जित भोजन का उल्लेख किया है, यथा जातिदुष्ट या स्वभावदुष्ट (स्वभाव से ही वर्जित ), जैसे लहसुन, प्याज आदि; क्रियादुष्ट (कुछ क्रियाओं के कारण वर्जित ), यथा खाली हाथ से परोसा हुआ, या पतित ( जातिच्युत), चाण्डालों, कुत्तों आदि द्वारा देख लिया गया भोजन या पंक्ति में बैठे हुए किसी व्यक्ति द्वारा आचमन करके सबसे पहले उठ जाने के कारण अपवित्र भोजन; कालवुष्ट ( समय बीत जाने पर या अनुचित या अनुपयुक्त समय का भोजन ), यथा बासी भोजन, ग्रहण में पकाया हुआ, बच्चा देने के उपरान्त पशु का दस दिनों के भीतर का दूध; संसर्गदुष्ट (निकृष्ट संसर्ग या संस्पर्श से भ्रष्ट हुआ भोजन ), यथा कुत्ते, मद्य, लहसुन, बाल, कीट आदि के सम्पर्क में आया हुआ भोजन; सहल्लेख ( घृणा या अरुचि उत्पन्न करने वाला भोजन ), यथा मल आदि। इन पाँचों प्रकारों के साथ रसदुष्ट (जिसका स्वाद समाप्त हो गया हो ), यथा दूसरे दिन पायस या क्षीर एवं परिप्रहदुष्ट (जो पतित, व्यभिचारी आदि का हो ) जोड़े जा सकते हैं । अपरार्क ने लिखा है कि वर्जित भोजन, जिसके खाने से उपपातक लगता है, छः प्रकार के कारणों से उत्पन्न होता है, यथा-स्वभाव, काल, सम्पर्क
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