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धर्मशास्त्र का इतिहास है) का उच्चारण प्रातः एवं सायं के भोजन के समय करना चाहिए, श्राद्ध के भोजन को 'स्वदितमिति (अर्थात् खाने में यह स्वादिष्ठ था) तथा आभ्युदयिक कृत्यों (विवाह आदि) के भोजन को 'सम्पन्नमिति (अर्थात् यह पूर्ण था) कहना चाहिए। भोजन को देखकर दोनों हाथ जोड़ने चाहिए और झुककर प्रणाम करना चाहिए और कहना चाहिए “यही हमें सदैव मिला करे", भगवान् विष्णु ने कहा है कि जो ऐसा करता है, वह मुझे सम्मानित करता है (ब्रह्मपुराण, गृहस्थरत्नाकर, पृ० ३१४)। भोजन प्राप्त हो जाने पर पात्र के चतुर्दिक जल छिड़क कर कहना चाहिए-"मैं तुम्हें, जो ऋत के साथ सत्य है, जल छिड़कता हूँ" (प्रातः), "मैं तुम्हें, जो सत्य के साथ ऋत है, जल छिड़कता हूँ" (सायं)। कुछ लोगों के मत से तब भोजन-पात्र के दाहिने पृथिवी पर थोड़ा भोजन पश्चिम से पूर्व धर्मराज (यम), चित्रगुप्त एवं प्रेत के लिए रख दिया जाता है (भविष्यपुराण, स्मृतिचन्द्रिका, पृ० २२४ में उद्धृत एवं आह्निकप्रकाश, पृ० ४६५) । अन्य लोगों के मत से भूपति, भुवनपति एवं भूतानांपति को बलि दी जाती है। किन्तु आजकल ये बलियाँ चित्र, चित्रगुप्त, यम एवं यमदूत (कुल लोगों ने पांचवां भी जोड़ दिया है, यथा-सर्वेभ्यो भूतेभ्यः स्वाहा) को दी जाती हैं। इसके उपरान्त “अमृतोपस्तरणमसि" (तुम अमृत के उपस्तरण हो) के साथ आचमन करना चाहिए और भोजनोपरान्त “अमृतापिधानमसि" (तुम अमृत के अपिधान हो) से आचमन करना चाहिए। यह सब बहुत प्राचीन काल से चला आया है। याज्ञवल्क्य (१११०६) ने इस प्रकार के आचमन को "आपोशन" (जल ग्रहण करना) कहा है। इसके उपरान्त पाँच कौर भोजन पर घृत छिड़क कर प्राणों के पांचों प्रकारों को समर्पित किया जाता है और प्रत्येक बार पहले 'ओम्' और बाद में 'स्वाहा' कहा जाता है। छान्दोग्योपनिषद् (५।१९-२३) में इन पांचों प्रकारों को क्रम से प्राण, व्यान, अपान, समान एवं उदान कहा मया है। इन्हें प्राणाहुतियां कहा जाता है। मध्यकाल के निबन्धों में प्राणाहुतियों के अतिरिक्त छठी बलि ब्रह्मा को देने की व्यवस्था है, जो आज भी प्रचलित है। प्राणाहुतियों के समय पूर्ण मौन धारण किया जाता है, यहां तक कि हूँ' का उच्चारण तक नहीं किया जाता। बौधायनधर्मसूत्र (२।७। ६) के अनुसार पूरे भोजन-काल तक मौन रहना चाहिए और यदि किसी प्रकार बोलना ही पड़े तो “ओं भूर्भुवः स्वः ओम्" कहकर तब पुनः भोजन आरम्भ करना चाहिए। किन्तु कुछ लोग प्राणाहुतियों के उपरान्त भोजन लेने या धर्म के लिए बोलना मना नहीं करते (स्मृतिचन्द्रिका, आह्निक, पृ० ४२३)-"गृहस्थों के लिए भोजन के समय मौन धारण शवश्यक नहीं है, जिनके साथ भोजन किया जा रहा हो उनके प्रति औत्सुक्य आदि प्रकट करने के लिए बोलना या उमसे बातचीत भी करनी चाहिए।" प्राणाहुतियां कितनी अंगुलियों से दी जायें, इसमें मतभेद रहा है। स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० २२६) में उद्धृत हारीत के अनुसार मार्जन, बलि, पूजा एवं भोजन अंगुलियों के पोरों से करना चाहिए। श्राद्ध-भोजन करते समय पात्र पृथिवी पर रखा रहना चाहिए और बायें हाथ के अंगूठे तथा उसके पास की दो अंगुलियों से भोजन-पात्र दबा रखना चाहिए, किन्तु यदि बहुत भीड़ हो और किसी समय धूल आदि उड़ जाय तो पांच कौर खा लेने के उपरान्त भोजन-पात्र ऊपर उठाया जा सकता है। पांचों अंगुलियों से कौर मुख में डालना चाहिए। व्यञ्जनों के चुनाव में विष्णुपुराण (३।२।८३-८४) एवं ब्रह्मपुराण (गृहस्थरत्नाकर, पृ० २२४ में उद्धृत) ने नियम बतलाये हैं--सर्वप्रथम मीठा एवं तरल पदार्थ खाना चाहिए, तब नमकीन एवं खट्टा पदार्थ, तब कटु एवं ताक्ष्ण व्यञ्जन और अन्त में दूध, जिसके उपरान्त दही का सेवन नहीं होना चाहिए। गृहस्थ को घृतमिश्रित भोजन करना चाहिए। भोजन अर्थात् रोटी, कन्द-मूल, फल या मांस दांत से काटकर नहीं खाना चाहिए (बौधायनधर्मसूत्र
४. ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामीति सायं परिषिञ्चति। सत्यं स्वर्तेन परिषिञ्चामीति प्रातः। तैत्तिरीय ब्राह्मण (२।१।११)।
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