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मूति-पूजा मन्दिरों में पुजारी होना चाहते हैं, यथा विष्णु के भागवत, सूर्य-मन्दिरों में मग (शाकद्वीपीय ब्राह्मण), शिव-मन्दिरों में विभूति लगाये द्विज, देवी के मंदिरों में मातृमंडल जानने वाले, ब्रह्मा के मन्दिर में ब्राह्मण, शान्तिप्रिय एवं उदारहृदय बुद्ध के मन्दिरों में बौद्ध, जिनों के मन्दिरों में नग्न साधु तथा इसी प्रकार के अन्य लोग ; इनको अपने सम्प्रदाय में व्यवस्थित विधि के अनुसार देवपूजा करनी चाहिए। क्षेमेन्द्र (१०६६ ई० के लगभग) ने अपने दशावतार-चरित में एवं जयदेव (लगभग ११८०-१२०० ई०) ने अपने गीतगोविन्द में बुद्ध को विष्णु का अवतार माना है। अतः लगभग १०वीं शताब्दी में बुद्ध सारे भारतवर्ष में विष्णु के अवतार रूप में विख्यात हो चुके थे।
भारतवर्ष में बौद्धधर्म का लुप्त हो जाना एक अति विचित्र घटना है। यद्यपि बुद्ध ने वेद एवं ब्राह्मणों के आधिपत्य को न माना, न तो व्यक्तिगत आत्मा एवं परमात्मा के अस्तित्व में ही विश्वास किया, किन्तु उन्होंने 'कर्म' एवं पुनर्जन्म तथा विरक्ति एवं इच्छारहित होने पर संस्कारों से छुटकारा पाने के सिद्धान्तों में विश्वास किया। जब बौद्धों ने बुद्ध का पूजन आरम्भ कर दिया, जब पशुबलि एक प्रकार से समाप्त हो गयी; जब सार्वभौम दयाशीलता, उदार भावना एवं आत्म-निग्रह की भावना सभी को स्वीकृत हो गयी और वैदिक धर्मावलम्बियों ने बौद्ध धर्म के व्यापक सिद्धान्त मान
विष्णु के अवतार रूप में स्वीकृत हो गये। तब उनके अन्य-धर्मत्व की आवश्यकता न प्रतीत हई। किन्तु भिक्षु-भिक्षुणियों के नैतिक पतन से बौद्ध धर्म की अवनति की गति अति तीव्र हो गयी और अन्त में मुसलमानों के आक्र. मणों ने लगभग १२०० ई० में बौद्धधर्म को सदा के लिए भारत से बिदा कर दिया।
ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से राम एवं कृष्ण को अवतारों के रूप में पूजा जा रहा था। कालिदास ने रघुवंश (११।२२) एवं मेघदूत में वामन को राम के समान ही अवतार माना है। इसी प्रकार कादम्बरी में वराह एवं नरसिंह के अवतारों का उल्लेख है। त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश-शिव को एक देव के रूप में मानने) की धारणा अति
१७. विष्णोर्भागवतान्मगांश्च सवितुः शम्भोः सभस्मद्विजान्, मातणामपि मातृमण्डलविदो विप्रान् विदुब्रह्मणः । शाक्यान्सर्वहितस्य शान्तमनसो नग्नाजिनानां विदुयें यं देवमुपाश्रिताः स्वविधिना तस्तस्य कार्या क्रिया॥ बृहत्संहिता ६०।११। देखिए विल्सन का विष्णुपुराण (जिल्द ५, पृ० ३८२), जहाँ भविष्यपुराण का (अन्तिम १२ अध्यायों का) विश्लेषण किया गया है। अभिशप्त होने पर साम्ब ने शिव का मन्दिर बनवाया और शकद्वीप से मगों के १८ कुटुम्ब बुला लिये, जिनके साथ यादवों के एक वर्ग भोजों ने वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया और तब मग लोग भोजक कहलाये। नाण के हर्षचरित (४) में भोजक ज्योतिषाचार्य तारक का उल्लेख हुआ है, जिसने हर्ष के जन्म पर उसकी महत्ता का वर्णन किया है और टीकाकार के अनुसार 'भोजक' का अर्थ है 'मग'। देखिए शेरिंग की पुस्तक 'हिन्दू ट्राइब्ज एण्ड कास्ट्स (जिल्ब १, पृ० १०२-१०३) जिसमें उन्होंने शाकद्वीपी ब्राह्मणों को मागध ब्राह्मण कहा है। न कि 'मग'। “मग और सूर्य-पूजा" के विषय में देखिए डा० आर० जी० भण्डारकर कृत "वष्णविज्म एण्ड शैविज्म", पृ० १५१११५५ । देखिए मग ब्राह्मणों के लिए बेवर का लेख 'मगव्यक्ति आव कृष्णदास' (एपिफिया इण्डिका, जिल्द २, १० ३३०), मग कवि गंगाधर का गोविन्दपुर प्रस्तर-लेख (१०५९ शकाग्द-११३७-३८ ई०), जिसमें ऐसा उल्लेख है कि मग लोग सूर्य के शरीर से उद्भूत हुए हैं, कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा शकद्वीप से लाये गये हैं और प्रथम मग भारद्वाज था। और देखिए एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द ९,१० २७९-प्रतिहार कक्कक का घटियालक शिलालेख, जो मातरवि नामक मग द्वारा लिखित है (संवत् ९१८-८६१-८६२ ई.)। देखिए भविष्यपुराण (अध्याय १३९-४०), जहाँ दाढ़ी बढ़ाने वाले भोजक कहे गये हैं, आदि । भीष्मपर्व (अध्याय ११) ने शाकद्वीप का उल्लेख किया है और ३६वें श्लोक ने मंगों (मगों) के देश की बात चलायी है।
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