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मूर्ति-पूजा
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सभी प्राणी कश्यप के वंशज या उससे सम्बन्धित माने जायेंगे।" इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण (१४।१।२।११) में वराह अवतार की कथा झलकती है-“एमूष नामक वराह ने पृथिवी को ऊपर उठाया, वह उसका (पृथिवी का) स्वामी प्रजापति था।" ऋग्वेद (११६११७) में आया है कि विष्णु ने वराह को फाड़ दिया। वह इन्द्र द्वारा प्रेरित होकर पूजक के पास एक सौ मैसें, खीर एवं एमूष नामक वराह लाता है (ऋ० ८१७७।१०) । तैत्तिरीय आरण्यक (१।१।३) ने इस किंवदन्ती की ओर संकेत किया है। काठकसंहिता (८।२) में प्रजापति को वराह बनकर पानी में डुबकी लेते कहा गया है (देखिए तैत्तिरीय संहिता ७१।५।१ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण १।१।३) । नृसिंहावतार की कथा की झलक हमें इन्द्र एवं नमुचि की गाथा में मिल जाती है। हिरण्यकशिपु का विष्णु द्वारा सत्यानाश बहुत कुछ उन्हीं परिस्थितियों में हुआ जिनमें इन्द्र ने नमुचि का नाश किया 'इन्द्र ने नमुदि से कहा था--"तुम्हें दिन या रात में नहीं मारूँगा, सूखे या गीले, हथेली या मुक्के से, या छड़ी या धनुष आदि से नहीं जाऊँगा" (शतपथब्राह्मण १२।७।३।१-४)। हमें शतपथब्राह्मण द्वारा उद्धृत ऋग्वेद (८।१४।१३) से पता चलता है कि इन्द्र ने नमुचि का सिर पानी के फेन से काट डाला था। 'सिलप्पदिकारम्' नामक प्राचीन तमिल ग्रन्थ में नरसिंहावतार की ओर संकेत है। वामनावतार की कथा की ओर संकेत (वामन ने तीन पद भूमि की याचना की थी) ऋग्वेद से प्राप्त होता है जहां विष्णु के प्रमुख पराक्रम हैं तीन पद रखना एवं पृथिवी को स्थिर कर देना। देखिए वामनावतार के लिए शतपथब्राह्मण (१।२।५।१)। छान्दोग्योपनिषद् (३।१७।६) में आया है कि ऋषि धोर आंगिरस ने देवकी के पुत्र कृष्णा को कोई उपदेश दिया। इसने महाभारत एवं पुराणों के कृष्ण की आख्यायिकाओं पर कुछ प्रभाव डाला होगा।
पतंजलि ने वासुदेव को केवल क्षत्रिय नहीं प्रत्युत परमात्मा का अवतार माना है (महाभाष्य, जिल्द २, पृ० ३१४)। पतंजलि ने कंस, उग्रसेन (अन्धक जाति के सदस्य), विश्वक्सेन (वृष्णि), बलदेव, सत्यभामा एवं अक्रूर का उल्लेख किया है (देखिए क्रम से महाभाष्य जिल्द २, पृ० ३६ एवं ११९, जिल्द २, पृ० २५७, जिल्द १, पृ० १११, जिल्द २, पृ० २९५) । इससे स्पष्ट होता है कि कृष्ण एवं उनके साथ के लोगों की कथाएँ (जो महाभारत एवं हरिवंश में पायी जाती हैं) पतंजलि एवं कुछ सीमा तक पाणिनि को ज्ञात थीं। हेलियोडोरस के वेसनगर स्तम्भ-लेख (एपिफिया इण्डिका, जिल्द १०, अनुसूची पृ० ६३, नं० ६६९) से पता चलता है कि यूनानी भी विष्णु के भक्त हो जाया करते थे। एरण प्रस्तर-लेख (गुप्त इस्क्रिप्शंस, पू० १५८, नं० ३६) में वराहावतार का उल्लेख हुआ है। भागवत पुराण (२।४।१८) ने लिखा है कि जब किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुक्कस, आभीर, सुह्म, यवन, खश एवं अन्य
११. स यत्कर्मो नाम । एतद्वै रूपं कृत्वां प्रजापतिः प्रजा असृजत यदसृजताकरोत्तदकरोत्तस्मात्कूर्मः कश्यपो कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति । शतपथ ब्राह्मण ७।५।११५।
१२. इयती ह वा इयमप्रे पृथिव्यास प्रादेशमात्री तामेमूष इति वराह उज्जधान सोऽस्याः पतिः प्रजापतिः। शतपथ ब्राह्मण १४३१०२०११; उतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना। भूमिधेनुर्धरणी लोकधारिणी। तैत्तिरीयारण्यक १०११। ऋग्वेद में बराह का अर्थ 'वराह के समान बांदल-राक्षस' या 'राह' हो सकता है। देखिए निरुक्त ५।४।
१३ इदं विष्णुविचक्रमे षा निदधे पदम्। समूढमस्म पांसुरे॥ त्रीणि पदा विचक्रमे विरुणुर्गोपा अदाभ्यः । ऋग्वेद ११२२।१७-१८; और देखिए ऋग्वेद १३१५४११-४, १११५५।४, ५।४९।१३ आदि; न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप। उदस्तम्ना नाकमज्वं बृहन्तं दार्थ प्राची ककुभं पृथिव्याः॥...व्यस्तम्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्य पृथिवीमभितो मयूखः॥ ऋग्वेद ७१९९।२-३।
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