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श्वांव, बलि
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सभी प्राचीन स्मृतियों में ऐसा विधान है कि वश्वदेव प्रातः एवं सायं दोनों बार करना चाहिए, किन्तु कालान्तर में प्रातः की ही परम्परा रह गयी और संकल्प में दोनों कालों को एक में बांध दिया गया। ऋग्वेद (५। १५) के मन्त्र 'जुष्टो दमूना' एवं 'एह्यग्ने' (ऋ० ११७६।२) अग्नि के आवाहन के लिए प्रयुक्त हैं और इसी प्रकार अग्नि के कुछ अन्य लक्षण भी अग्नि-ध्यान के लिए प्रयुक्त किये गये हैं। अपने खाने के लिए जो भोजन बनाया जाता है, उसका थोड़ा भाग पृथक् पात्र में रख दिया जाता है और उस पर घृत छोड़ दिया जाता है, तब उसे तीन भागों में विभाजित किया जाता है। इसके उपरान्त बायें हाथ को अपने हृदय पर रखकर दाहिने हाथ से एक आंवले के बराबर भोजन को (तीन भागों में से एक को) उठाकर तथा अंगूठे से दबाकर उसमें से थोड़ा-थोड़ा अन्न का भाग दाहिने हाथ से ही सूर्य, प्रजापति, सोम, वनस्पति, अग्नी-षोम, इन्द्राग्नि, द्यावापृथिवी, धन्वन्तरि, इन्द्र, विश्वे-देवों एवं ब्रह्मा को दिया जाता है। तव अग्नि में से 'मान नस्तोके' (ऋ० ११११४१८) मन्त्र के साथ भस्म लेकर मस्तक, गले, नाभि, दाहिने एवं बायें कंधों एवं सिर पर लगाया जाता है। इसके उपरान्त अग्नि की अन्तिम पूजा की जाती है जिससे कि बुद्धि, स्मृति, यश आदि की प्राप्ति हो।
कुछ मध्यकालिक निबन्धों में वाद-विवाद खड़ा हो गया है (यथा मिताक्षरा, याज्ञवल्क्य १११०३); क्या वैश्वदेव पुरुषार्थ मात्र (कुछ कल्याणकारी लाभ के लिए पुरुष का कर्तव्य) है या पुरुषार्थ के साथ-साथ पक्वान्न देने का एक संस्कार भी है ? दूसरे पक्ष में भोजन प्रधान और वैश्वदेव गौण हो जायगा, किन्तु पहले रूप में (जब कि वैश्वदेव केवल पुरुषार्थ है) भोजन गौण तथा वैश्वदेव प्रधान हो जायगा। आश्वलायनगृ० (१२।१) के आधार पर कुछ लोगों के मत से वैश्वदेव पक्वान्न का संस्कार है और आश्वलायनगृ० (३३१३१.एवं ४) के आधार पर यह पुरुषार्थ है। मिताक्षरा ने मनु (२०२८) के आधार पर वैश्वदेव को पुरुषार्थ माना है। यही बात स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० २१२) एवं पराशरमाधवीय (१११, पृ० ३९०) में भी पायी जाती है। किन्तु स्मृत्यर्थसार (पृ० ४६) एवं लघु आश्वलायन (१।११६) के अनुसार वैश्वदेव गृहस्थों एवं पक्वाप्न दोनों का संस्कार है।
वैश्वदेव का कृत्य श्राद्ध के पूर्व हो या उपरान्त तथा श्राद्ध के लिए भोजन पृथक् बने या साथ ? इस प्रश्न के उत्तर में मतैक्य नहीं है। अपरार्क (पृ० ४६२) ने इस विषय में तीन मत दिये हैं-(१) वैश्वदेव भोजन तैयार होने के तुरन्त बाद ही होना चाहिए, या (२) बलिहरण के उपरान्त होना चाहिए, या (३) श्राद्ध समाप्त हो जाने पर इसे करना चाहिए। मदनपारिजात (पृ० ३२०, बृहत्पराशर (पृ० १५६) आदि के मत से वैश्वदेव श्राद्ध के पूर्व अवश्य हो जाना चाहिए (देखिए इस विषय में स्मृतिमुक्ताफल, पृ० ४०६-४०७), किन्तु अनुशासनपर्व (९७।१६-१८) के अनुसार श्राद्ध के दिन पहले पितृतर्पण होता है, तब बलिहरण और अन्त में वैश्वदेव । मदनपारिजात (पृ० ३१८) के मत से वैश्वदेव का भोजन श्राद्ध-भोजन से पृथक् बनना चाहिए। संयुक्त परिवार में पिता या ज्येष्ठ माई वैश्वदेव करता है। किसी असमर्थता के कारण पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता द्वारा आशापित होने पर पुत्र या छोटा भाई भी इसे सम्पादित कर सकता है (लघु आश्वलायन ११११७-११९)।
पक्वान्न पर घृत, दही या दूध छिड़कना चाहिए किन्तु तेल एवं नमक नहीं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१५।१२
४. आधुनिक संकल्प यह है-ममोपात्तदुरितक्षयद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थमात्मानसंस्कारपञ्चसूनाअनितोषपरिहारार्य प्रातवैश्वदेवं सायं वैश्वदेवं च सह मन्त्रेण करिष्ये।
५. गृहस्थो वैश्वदेवाख्यं कर्म प्रारभते दिवा। अन्नस्य चात्मनश्चव सुसंस्कारार्थमिष्यते॥ स्मृत्यर्थसार, १० ४६; शुर्य चात्मनोऽनस्य वैश्वदेवं समाचरेत्। लघ्वाश्वलायन (१।११६)।
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