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धर्मशास्त्र का इतिहास
प्राचीन रही है। महाभारत में आया है कि प्रजापति ब्रह्मा रूप में सृष्टि करता है, महान् पुरुष के रूप में रक्षा करता है तथा रुद्र रूप में नाश करता है ( वनपर्व ) । ब्रह्मा के मन्दिर अब बहुत ही कम पाये जाते हैं; अत्यन्त प्रसिद्ध मन्दिर है अजमेर के पास पुष्कर का मन्दिर । सावित्री के शाप से ब्रह्मा की पूजा अवनति को प्राप्त हुई कही गयी है (पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड, १५) ।
शिव-पूजा सम्भवतः प्राचीनतम पूजा है। सर जॉन मार्शल के ग्रन्थ मोहेन्जोदड़ो ( जिल्द १, पृ० ५२-५३ एवं चित्र १२, संख्या १७ ) से पता चलता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय सम्भवतः शिव पूजा प्रचलित थी, क्योंकि एक चित्र में एक योगी के चतुर्दिक् हाथी, व्याघ्र, गैंडा एवं मैंस पशु हैं (शिव को पशुपति भी कहा जाता है) । कालिदास के बहुत पहले से शिव की पूजा अर्ध पुरुष एवं अर्ध नारी के रूप में प्रचलित थी ( मालविकाग्निमित्र का प्रथम पद्य एवं कुमारसम्भव ७।२८) । शिव को बहुधा पंचतुण्ड (पंचमुख —— पंचानन ) भी कहा जाता है और इनके पाँच स्वरूप हैं क्रम से सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष एवं ईशान (देखिए तैत्तिरीय आरण्यक १०१४३-४७ एवं विष्णुधर्मोत्तर ३ । ४८।१) । कालान्तर में शैवों एवं वैष्णवों में एक-दूसरे के विरुद्ध पर्याप्त कहा-सुनी हुई, किन्तु महाभारत एवं पुराणों के कालों में इन में कोई वैमनस्य नहीं था प्रत्युत बड़ा सौहार्द एवं सहिष्णुता थी । देखिए वनपर्व ३९।७६ एवं १८९।५-६, शान्तिपर्व ३४३ | १३२, मत्स्यपुराण ५२।२३ । अनुशासनपर्व ( १४९।१४- १२० ) में विष्णु के १००० नाम तथा अनुशासन (१७) एवं शान्तिपर्व ( २८५।७४ ) में शिव के मी १००० नाम दिये गये हैं ।
गणेश के विषय में हमने पहले भी पढ़ लिया है (अध्याय ७) । जैनों ने भी गणेश की पूजा की है ( देखिए आचारदिनकर, संवत् १४६८, जर्नल आव इण्डियन हिस्ट्री, जिल्द १८, १९३९, पृ० १५८, जिनमें गणेश की विभिन्न आकृतियों एवं एक आकृति में १८ बाहुओं का वर्णन है ) । आचारदिनकर के अनुसार गणेश की प्रतिमाओं के २, ४, ६, ९, १८ या १०८ हाथ हो सकते हैं। अग्निपुराण ( अध्याय ७१), मुद्गलपुराण एवं गणेशपुराण में गणेश-पूजा का वर्णन है, किन्तु इन पुराणों की तिथियाँ अनिश्चित हैं । वराहपुराण (अध्याय २३) ने गणेश के जन्म के विषय में एक विचित्र कथा लिखी है। गणपत्यथर्वशीर्ष ने गणेश को ब्रह्म माना है ।
ग्रहों की प्रतिमाओं का पूजन अपेक्षाकृत प्राचीन है । याज्ञवल्क्यस्मृति (१।२९६-२९८) ने लिखा है कि नौ ग्रहों (सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु) की पूजा के लिए उनकी मूर्तियाँ क्रम से ताम्र, स्फटिक, लाल चन्दन, सोना (बुध एवं बृहस्पति के लिए), रजत, लोहा, सीसा एवं काँसे की बनी होनी चाहिए।
विद्या की देवी सरस्वती के बारे में दण्डी ( ६०० ई० के पश्चात् नहीं) ने लिखा है कि वे सर्व शुक्ला हैं।
दत्तात्रेय की पूजा बहुधा दक्षिण में होती है। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से ही दत्तात्रेय की पूजा अवश्य आरम्भ हो गयी थी। जाबालोपनिषद् में वे परमहंस कहे गये हैं और उनके नाम पर एक उपनिषद् भी है। वनपर्व (११५), अनुशासन (१५३) एवं शान्तिपर्व (४९१३६) का कहना है कि उन्होंने कार्तवीर्य को वरदान दिये । मार्कण्डेय पुराण (अध्याय १६-१९) ने उनके जन्म के बारे में लिखा है और उन्हें योगी माना है तथा कहा है कि उनके भक्तगण उन्हें शराब एवं मांस देते थे । मागवतपुराण (९।२२।२३), मत्स्यपुराण (४७।२४२-२४६ ) तथा अन्य पुराणों ने मी इनके बारे में लिखा है । माघ ने शिशुपालवध में इन्हें अवतार माना है।
देवपूजा की विधि, षोडश उपचार
विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय ६५) में ( वासुदेव या विष्णु की ) देवपूजा का सबसे आरम्भिक स्वरूप पाया जाता है : " अच्छी तरह स्नान करके, हाथ-पैर धोकर तथा आचमन करके यज्ञ स्थल पर मूर्ति के समक्ष अनादि एवं अनन्त वासुदेव की पूजा करनी चाहिए। मन में मन्त्र " प्राणवन्त अश्विन् लोग तुम्हें प्राण दें" (मैत्रायणी संहिता २|३|४) कहकर
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