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तर्पण
३७९ ऐसे व्यक्ति को जो वमन एवं कई बार मल त्याग कर चुका हो, पूर्ण मुण्डित सिर वाले, गन्दे वस्त्र वाले, जटिल साधु, बौने, संन्यासी या नारंगी वस्त्र धारण करने वाले को देख ले तो घर में लौट आकर पुनः प्रस्थान करना चाहिए।
शौच, दन्तधावन, स्नान, सन्ध्या, होम एवं जप के कृत्य दिन के आठ भागों के प्रथम भाग में सम्पादित हो जाते हैं। दिन के दूसरे भाग में ब्राह्मण गृहस्थ को वेद पाठ दोहराना, समिधा, पुष्प, कुश आदि एकत्र करना पड़ता था (दक्ष २।३३, ३५, याज्ञवल्क्य ११९९ ) । इस विषय में उपनयन के अध्याय में चर्चा हो चुकी है। दिन के तीसरे भाग में गृहस्थ को वैसा कार्य करना पड़ता था जिसके द्वारा वह अपने आश्रितों की जीविका चला सके ( दक्ष २०३५ ) । इस विषय में ब्राह्मणों के जीवन पर प्रकाश बहुत पहले डाला जा चुका है (अध्याय ३ ) । गौतम ( ९१६३), याज्ञवल्क्य (१।१००), मनु (४।३३), विष्णु (६३।१) आदि के अनुसार ब्राह्मण गृहस्थ को राजा या धनिक के पास अपनी, अपने कुल की जीविका के लिए जाना चाहिए। जो जितने ही बड़े कुल का या जितने ही अधिक लोगों का प्रतिपालन कर सके वही उत्तम है तथा जीवित है, जो केवल अपना ही पेट पालता है, वह जीता हुआ मरा-सा है (दक्ष २१४० ) ।
दिन के चतुर्थ भाग ( मध्याह्न के पूर्व ) में तर्पण के साथ मध्याह्नस्नान किया जाता था और मध्याह्न सन्ध्या, देवपूजा आदि की व्यवस्था थी ( दक्ष २०४३ एवं याज्ञवल्क्य १।१०० ) । किन्तु कुछ लोग केवल एक ही बार स्नान करते हैं, अतः उपर्युक्त सन्ध्या आदि केवल उनके लिए है जो मध्याह्न स्नान करते हैं । मध्याह्न के पूर्व के स्नान के साथ देव, ऋषि एवं पितृ तर्पण, देवपूजा एवं पंचयज्ञ किये जाते हैं। अब हम इन्हीं का सविस्तर वर्णन उपस्थित करेंगे।
तर्पण
मनु (२।१७६) के मत से प्रति दिन देवों, ऋषियों एवं पितरों को तर्पण करना चाहिए, अर्थात् जल देकर उन्हें परितुष्ट करना चाहिए। यह तर्पण देवताओं के लिए दाहिने हाथ के उस भाग से जिसे देवतीर्थ कहते हैं, देना चाहिए तथा पितरों को उसी प्रकार पितृतीर्थ से। जो व्यक्ति जिस वैदिक शाखा का रहता है वह उसी के गृह्यसूत्र के अनुसार तर्पण करता है । विभिन्न गृह्यसूत्रों में विभिन्न बातें लिखी हुई हैं। यहाँ हम आश्वलायनगृह्यसूत्र ( ३।४ ११-५) के वर्णन का उल्लेख करेंगे। देवतर्पण में निम्नोक्त देवताओं के नाम आते हैं और 'तृप्यतु', 'तृप्येताम्' या 'तृप्यन्तु' का उच्चारण एक देवता, दो देवताओं तथा दो से अधिक देवताओं के लिए किया जाता है और प्रत्येक को जल दिया जाता है ( प्रजापतिस्तृप्यतु, ब्रह्मा तृप्यतु... द्यावापृथिव्यौ तृप्येताम् आदि) । देवता ३१ हैं, यथा प्रजापति, ब्रह्मा, वेद, देव, ऋषि, सभी छन्द, ओंकार, वषट्कार, व्याहृतियाँ, गायत्री, यज्ञ, स्वर्ग और पृथिवी, अन्तरिक्ष, दिन एवं रात्रि, सांख्य, सिद्ध, समुद्र, नदियां, पर्वत, खेत, जड़ी-बूटियाँ, वृक्ष, गन्धर्व एवं अप्सराएँ, साँप, पक्षी, गायें, साध्य, विप्र, यक्ष, रक्षस्, भूत (प्राणी) । आधुनिक काल में खेत, जड़ी-बूटियाँ, वृक्ष, गन्धर्व एवं अप्सराओं को एक सामासिक पद में रखा जाता है और उन्हें एक ही देवता माना जाता है, तथा भूतों के उपरान्त एवमन्तानि तृप्यन्तु' नामक एक अन्य देवगण जोड़ दिया जाता है । हरदत्त (आश्वलायनगृह्यसूत्र ३।३।२ ) ने कुछ लोगों के मत से 'एवमन्तानि' को एक पृथक् मन्त्र घोषित किया है किन्तु अपने मत के अनुसार 'एवमन्तानि' को पीछे वाले देवता के अर्थ में प्रयुक्त किया है और देवताओं की गणना 'रक्षांसि तक समाप्त कर दी है। हरदत्त ने यह भी लिखा है कि इन देवताओं का तर्पण प्राजापत्य तीर्थ से किया जाता है।
तर्पण करने योग्य ऋषियों को दो भागों या दलों में बाँटा गया है। प्रथम दल के १२ ऋषि हैं, जिनके तर्पण में यज्ञोपवीत निवीत ढंग से धारण किया जाता है । ये बारह ऋषि हैं-सौ ऋचाओं के ऋषि, मध्यम ऋषि (ऋग्वेद के दूसरे मण्डल से नवें मण्डल तक के ऋषि), गुत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, प्रगाथ, पावमानी मन्त्र
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