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विवाह और सपिण्ड
२८१ ने दो मतों की चर्चा करके अन्तिम निर्णय यही निकाला है कि विवाह के उपरान्त भी स्त्री पिण्डदान के लिए अपने पिता के गोत्र वाली बनी रहती है, किन्तु यह बात तभी सम्भव है, जब कि वह पुत्रिका (बिना भाई वाली) हो और आसुर विवाह-रीति से विवाहित हुई हो; किन्तु यदि वह ब्राह्म या किसी अन्य स्वीकृत विवाह प्रकार से विवाहित हुई हो तो विकल्प से अपने पिता के गोत्र से अपनी माँ को पिण्ड दिया जा सकता है (देखिए अपरार्क, पृ० ४३२, ५४२, स्मृतिचन्द्रिका, भाग १, पृ० ६९)।
तीसरी शताब्दी के नागार्जुनकोण्डा के कुछ अभिलेखों से पता चलता है कि वाजपेय, अश्वमेध एवं अन्य यज्ञ करनेवाले सिरी छान्तमूल के पुत्र राजा सिरी विरपुरिसदत ने अपनी फूफी (पिता की बहिन) की लड़की से विवाह किया था। कुछ लेखकों ने मातुलकन्या से विवाह को उचित किन्तु फूफी की कन्या से अनुचित ठहराया है (निर्णयसिन्धु ३, पृ० २८६, पूर्वार्ध)। इसी प्रकार स्मृतिचन्द्रिका (भाग १, पृ० ७१) एवं पराशरमाधवीय (११२, पृ० ६५) ने लिखा है कि यद्यपि मौसी या मौसी की कन्या से विवाह-सम्बन्ध वैसा ही मान्य होना चाहिए जैसा कि मातुलकन्या से, किन्तु शिष्ट लोग इसे बुरा मानते हैं अतः यह अमान्य है। दोनों ग्रन्थ याज्ञवल्क्य (१।१५६) पर विश्वास करते हैं।
दक्षिण में कुछ लोग, जिनमें ब्राह्मण मी सम्मिलित. हैं (यथा-कर्नाटक एवं मैसूर के देशस्थ लोग), ऐसे हैं जो अपनी बहिन की कन्या से विवाह कर लेते हैं। वेलम जाति के लोग अपनी बहिन की लड़की से विवाह कर सकते हैं।
उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट होता है कि विवाह-सम्बन्धी प्रतिबन्धों एवं नियमों के विषय में बड़ा मतभेद रहा है। इन विविध मतभेदों को देखकर संस्कारकौस्तुभ (पृ० ६२०) एवं धर्मसिन्धु (पृ० २२४) के वचन बहुत तर्कयुक्त एवं व्यावहारिक जंचते हैं। इनका कहना है कि कलियुग में भी जिनके कुलों में या जिन प्रदेशों में मातुलकन्या विवाह युगों से प्रचलित रहा है, उन्हें उन लोगों द्वारा (जो लोग मातुल-कन्याविवाह के विरोधी हैं) श्राद्ध में बुलाया जाना चाहिए और उनकी कन्याओं से अपने कुल में विवाह करने से नहीं हिचकना चाहिए।
विमाता के कुल की कन्याओं से सपिण्डता किस रूप में होती है ? इस प्रश्न पर उद्वाहतत्त्व (पृ० ११८), निर्णयसिन्धु (पृ० २८९), स्मृतिचन्द्रिका (पृ० ६९५-६९९), संस्कारकौस्तुभ (पृ० ६२१-६३०) एवं धर्मसिन्धु (पृ० २३०) ने विचार किया है। वे सभी सुमन्तु का उद्धरण देते हैं--"पिता की सभी पत्नियाँ माँ हैं, इन नारियों के भाई मामा हैं, उनकी बहिनें अपनी वास्तविक मां की बहिनों (मौसियों) के समान हैं, इनकी कन्याएं अपनी बहिनें हैं, इनकी सन्तानें अपनी सगी बहिनों की सन्तानों के सदृश हैं, अन्यथा (इनसे विवाह करने से) संकर की गुंजाइश है।" इस विषय में दो मत हैं। प्रथम मत यह है, जिसे बहुत से लोग मानते हैं--कोई व्यक्ति अपनी विमाता के भाई या बहिन की कन्या या उस कन्या की कन्या से विवाह नहीं कर सकता। किन्तु दूसरे मत से सापिण्ड्य के अतिदेश के नियम का प्रतिरोध हो जाता है।
___ कुछ लेखकों ने 'विरुद्ध सम्बन्ध' के आधार पर कुछ कन्याओं से विवाह करने पर रोग लगा दी है, यद्यपि इन दशाओं में सापिण्ड्य-सम्बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठता। निर्णयसिन्धु (पृ० २३९) में उद्धृत गृह्य-परिशिष्ट के अनुसार उसी कन्या से विवाह करना चाहिए जिसके साथ विरुद्ध सम्बन्ध न हो, जैसे अपनी पत्नी की बहिन की कन्या या अपने चाचा की पत्नी की बहिन से विवाह विरुद्ध-सम्बन्ध है। आधुनिक काल में ऐसे विवाह होते रहे हैं। तेलुगु एवं तमिल जिलों के ब्राह्मणों एवं शूद्रों में अपनी पत्नी की बहिन की लड़की से विावह वैध माना जाता है।
१६. पितृपल्यः सर्वा मातरस्तद्भातरो मातुलास्तभगिन्यो मातृस्वसारस्तदुहितरश्च भगिन्यस्तदपत्यानि भागिनेयानि। अन्यथा संकरकारिणः स्युः। सुमन्तु।
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