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धर्मशास्त्र का इतिहास में बाधा देनेवालों का अभाव था, क्योंकि वहाँ शची की उपस्थिति थी)। हो सकता है स्वयंवर की प्रथा प्रारम्भ हान के पूर्व शची की पूजा होती रही हो।
तल-हरिद्वारोपण (वधू के शरीर पर तेल एवं हल्दी के लेप के उपरान्त बचे हुए भाग से घर के शरीर का लेपन) -देखिए संस्कारकोस्तुम (पृ० ७५७) एवं धर्मसिन्धु (३, पृ० २५७)।
आरक्षितारोपण (वर एवं वधू द्वारा भीगे हुए अक्षतों को एक-दूसरे पर छिड़कना) -एक चाँदी सरीखी धातु के बरतन में थोड़ा दूध छोड़कर उस पर थोड़ा घी छिड़क दिया जाता है, तब उसमें बिना टूटे हुए चावल छोड़े जाते हैं। वर दूध एवं घी वधू के हाथों में दो बार लगाता है और तीन बार भीगे चावल इस प्रकार डालता है कि उसकीयंजलि मर जाती है और फिर दो बार घृत छिड़कता है। कोई अन्य व्यक्ति यही कृत्य वर के हाथ में करता है और कन्या का पिता दोनों के हाथ में स्वर्णिम टुकड़े रख देता है। इस प्रकार इस क्रिया का बहुत विस्तार है। स्थानाभाव के कारण शेषांश छोड़ दिया जाता है (देखिए कालिदास का रघुवंश (७), जो आर्द्राक्षतारोपण को विवाह के अंतिम कृत्य के रूप में उल्लिखित करता है)।
____ मंगलसूत्र-बन्धन (वधू के गले में स्वणिम एवं अन्य प्रकार के दाने गैरे में लगाकर गांधना)-यह आधुनिक काल में एक आभूषण हो गया है, जिसे पति के जीते रहने तक धारण किया जाता है। सूत्रकार इस विषय में सर्वथा मौन हैं। शौनकस्मृति, लघु-आश्वलायन-स्मृति (१५॥३३) आदि ने इसका वर्णन किया है।
उत्तरीय-प्रान्त-बन्धन (वर एवं वधू के वस्त्र के कोने में हल्दी एवं पान बांधकर दोनों कोनों को एक में बांधना)-देखिए संस्कारकौस्तुम, पृ० ७९९ एवं संस्कारप्रकाश, पृ० ८२९ ।
एरिणीदान (एक बड़े डले या दौरे में जलते हुए दीपक के साप भांति-भांति की मेटें सजाकर वर की माता को देना, जिससे कि वह सया अन्य सम्बन्धी वधू को स्नेह से रख)-देखिए संस्कारकौस्तुम (पू०८११), धर्मसिन्धु (पृ० २६७) । वंश (बाँस) का बना हुआ दौरा (बड़ी डलिया) इस बात का द्योतक है कि कुल (वंश.) बहुत दिनों तक चला जाय। यह तब किया जाता है जब वधू अपने पति के घर जाने लगती है।
देवकोत्थापन एवं मण्डपोद्वासन (बुलाये गये देवी-देवताओं से छुट्टी लेना तथा माप को हटाना)देखिए संस्कारकौस्तुभ (पृ० ५३२-५३३) एवं संस्काररत्नमाला (पृ० ५५५-५५६) ।
दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं--(१) विवाह कब सम्पादित एवं अनन्यथाकरणीय माना जाता है ? एवं (२) यदि धोखे से तथा बलवश विवाह कर लिया जाय तो क्या किया जा सकता है ? ।
मनु (८११६८) जोर-जबरदस्ती या बलवश किये गये कार्यों को किया हुआ नहीं मानते। किन्तु इस सिद्धान्त को विगाह के विषय में मान लेना कठिन है। हमने ऊपर वसिष्ठधर्मसूत्र (१७।७३) एवं बौधायनधर्मसूत्र के वचन पढ़ लिये हैं कि यदि कन्या अपहृत हो जाय और उसका विवाह हो जाय, किन्तु वैदिक मन्त्रों का उच्चारण न हुआ रहे, तो कन्या किसी दूसरे से विवाहित हो सकती है। विश्वरूप (पृ०७४) एवं अपराकं (पृ० ७९) के अनुसार यह कार्य कन्या द्वारा प्रायश्चित्त किये जाने पर ही हो सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि यदि विवाहकृत्य (यथा सप्तपदी) सम्पादित हो गये हों तो प्राचीन धर्मशास्त्रकार भी उस विवाह को अन्यथा नहीं सिद्ध कर सकते थे, भले ही कन्या धोखे से या बलवश छीन ली गयी हो। किन्तु आधुनिक कानून कुछ और है; यदि विवाह घोखे से या जोर-जबदरस्ती से कर दिया ग हो तो उसे कचहरी द्वारा अन्यथा सिद्ध किया जा सकता है, भले ही विवाह के सभी धार्मिक कृत्य क्यों न सम्पादित कर दिये गये हों।
वसिष्ठधर्मसूत्र (१७३७२) का कथन है कि जब कन्या प्रतिश्रुत हो चुकी हो, और जल से वचन पक्का कर दियां मया हो, किन्तु यदि वर की मृत्यु हो जाय और वैदिक मन्त्र न पढ़े गये हों, तो कन्या अब भी पिता की ही कही जायगी। यही
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