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अध्याय १० मधुपर्क तथा अन्य आचार
मधुपर्क
किसी विशिष्ट अतिथि के आगमन पर उसके सम्मान में जो मधु आदि का प्रदान होता है उसे मधुपर्क-विधि कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है-वह कृत्य जिसमें मधु का (किसी व्यक्ति के हाथ पर) गिराना या मोचन होता है। यह शब्द जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण (१८१४) में प्रयुक्त हुआ है। मधुपर्क शब्द का प्रयोग निरुक्त (१।१६) ने भी किया है। ऐतरेय ब्राह्मण (३।४) में संभवतः मधुपर्क की ओर ही संकेत है यद्यपि इसमें 'मधुपर्क' शब्द प्रयुक्त नहीं हुया है, तथापि इस प्रकार के सम्मान से मधुपर्क कर्म का संकेत मिल ही जाता है। गृह्य-सूत्रों में इसका विस्तार के साथ वर्णन मिलता है। उनकी बहुत सी बातें समान हैं, अन्तर केवल मन्त्रों के प्रयोग में है, यद्यपि बहुत-से मन्त्र भी ज्यों-केत्यों हैं। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।२४।१-४) के अनुसार यज्ञ करानेवाले ऋत्विक, घर में आये हुए स्नातक एवं राजा को, आचार्य, श्वशुर, चाचा एवं मामा के आगमन पर इन्हें मधुपर्क दिया जाता है। मानव० (१।९।१) खादिर० (४॥ ५२१), याज्ञवल्क्य (१।११०) के अनुसार छः प्रकार के व्यक्ति अयं (मधुपर्क के भागी) होते हैं, यथा ऋत्विक, आला, वर, सजा, स्नातक तथा वह जो अपने को बहुत प्यारा हो। बौधायन० (१२०६५) ने इस सूची में अतिथि को भी जोड़ दिया है। देखिए गौतम (५।२५), आपस्तम्बगृ० (१३॥१९-२०), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।३।८।५-७), बौधाकार्मसूत्र (२॥३॥६३-६४), मनु (३।११९), सभापर्व (३६३२३-२४), मोमिलगृ०(४।१०।२३-२४) । यदि व्यक्ति एक बार मधुपर्क पाने के उपरान्त वर्ष के भीतर ही पुनः चला आये तो दुबारा देने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु यदि गृह में विवाह या यज्ञ हो रहा हो तो उन व्यक्तियों को पुनः (साल भर के भीतर भी) मधुपर्क देना चाहिए। देखिए गौतम० (५।२६-२७), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।३३८१६), याज्ञवल्क्य (१।११०), खादिर० (४।४।२६), गोभिल० (४।१०। २६)। ऋत्विक् को प्रत्येक यज्ञ में सम्मानित करना चाहिए (याज्ञवल्क्य ११११०)। जब यज्ञ में राजा एवं स्नातक आयें तभी उनका मधुपर्क से सम्मान करना चाहिए। विश्वरूप (याज्ञवल्क्य १३१०९) के अनुसार केवल राजा को ही मधुपर्क देना चाहिए, किसी अन्य क्षत्रिय को नहीं। मेधातिथि (मर्नु ३।११९) के अनुसार शूद्र को छोड़कर सभी जाति के
१.सं होगा कि विद्वानो बाल्म्यानामन्त्र्य मधुपर्क पिबसीति । जैमिनीय उपनिषद्-माह्मण (१९६४); जानते मपर्क प्राह। निकात (१११६)।
१. तापवावो मनुष्यराज आगतेज्यस्मिन्वाहति उमानं वा बेहतं वा सान्ते। ऐतरेय ब्राह्मण (२४)। मेवातिपिने मनु (३३११९) को तथा हरदत्त ने गौतम (१७।३०) की टीका में इसे उब्त किया है।
३. ऋत्विजो वृत्वा मवपर्कमाहरेत् । स्नातकायोपस्थिताय। रामेच। आचार्यश्वशुरपितष्यमातुलाना च पाश्वलायन गु० १०२४११-४॥वर जब वधू के घर आता है तो उसे भी मधुपर्क दिया जाता है, क्योंकि वह भी सामान्यतः स्नातक ही होता है। आचार्य वह है जो उपनयन कराता है और वेब पढ़ाता है।
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