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जातः कृत्य
३६३ विधि चार प्रकार की है— पौराणिक (जिसमें प्रत्येक आचमन में केशव, नारायण, माधव आदि के नाम लिये जाते हैं), स्मार्त (जैसा कि मनु २।६० आदि स्मृतियों में कहा गया है), आगम (जैसा कि शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों की पवित्र पुस्तकों में सिखाया गया है) एवं श्रौत (जैसा कि वैदिक यज्ञों के लिए श्रौतसूत्रों में कहा गया है) । आधुनिक are में पौराणिक विधि ही बहुधा ब्राह्मणों द्वारा प्रयोग में लायी जाती है ।
दन्तधावन
दन्तधावन का स्थान शौच एवं आचमन के उपरान्त एवं स्नान के पूर्व है ( देखिए याज्ञवल्क्य १।९८ एवं दक्ष २६) । बहुत प्राचीन काल से ही दन्तधावन की व्यवस्था भारत में रही है । तैत्तिरीय संहिता ( २/५/१/७ ) में आया है कि रजस्वला स्त्रियों को दन्तधावन नहीं करना चाहिए, नहीं तो उत्पन्न पुत्र के दोत काले हो जायेंगे । दन्तघावन एक स्वतन्त्र कृत्य है, यह स्नान तथा प्रातः काल की सन्ध्या का कोई अंग नहीं है । आपस्तम्बधर्मसूत्र ( ११२२८१५) ने लिखा है कि जो गुरुकुल से अध्ययन समाप्त करके लौट आया है उसे बाद में भी यदि गुरु का सम्पर्क हो जाय तो दन्तधावन, शरीर-मर्दन, केशविन्यास नहीं करना चाहिए और न वेदाध्ययन के समय यह सब कृत्य ही करना चाहिए (१।३।११।१०-१२ ) । गौतम (२।१९) एवं वसिष्ठधर्मसूत्र (७/१५) के अनुसार ब्रह्मचारी को बहुत देर तक दन्तघावन करने का आनन्द नहीं लेना चाहिए ।
गोमिलस्मृति (जिसे छन्दोग परिशिष्ट भी कहा जाता है) में आया है कि जब व्यक्ति जल से या घर पर मुंह धोता है तो मन्त्रोच्चारण नहीं करता है, किन्तु जब वह दातुन (लकड़ी का डण्ठल ) प्रयोग में लाता है तो यह मन्त्र कहता है - "हे वृक्ष, मुझे आयु, बल, यश, ज्योति, सन्तान, पशु, घन, ब्रह्म (वेद), स्मृति एवं बुद्धि दो ।" पारस्करगृह्यसूत्र (२।६) एवं आपस्तम्बगृह्यसूत्र ( १२।६ ) में समावर्तन के समय उदुम्बर ( गूलर ) की लकड़ी की दातुन करने की व्यवस्था है ।
दातुन की लम्बाई, वृक्ष (जिसकी लकड़ी उपयोग में लायी जा सकती है या निषिद्ध है), दिन एवं अवसर ( जिस दिन या अवसर पर दन्तधावन नहीं किया जाता ) के विषय में विस्तार के साथ नियम दिये गये हैं । दो-एक नियम यहाँ उल्लिखित हो रहे हैं। ऐसे वृक्ष की टहनी जिसके तने में कण्टक हों और टहनी तोड़ने पर जिससे दूध ऐसा रस निकले, प्रयोग में लानी चाहिए तथा वट, असन, अर्क, खदिर, करञ्ज, बदर, सर्ज, निम्ब, अरिमेद, अपामार्ग, मालती, ककुभ, बिल्व, आम, पुन्नाग, शिरीष की टहनियाँ प्रयोग में लानी चाहिए।" ये टहनियाँ स्वाद में कषाय, तिक्त एवं कटु होनी चाहिए, न कि मीठी या खट्टी । दन्तधावन में निम्नलिखित वृक्ष प्रयोग में नहीं लाये जाते - पलाश, श्लेष्मातक, अरिष्ट, विभीतक, धव, बन्धूक, निर्गुण्डी, शिग्रु, तिल्व, तिन्दुक, इंगुद, गुग्गुलु, शमी, पीलु, पिप्पल, कोविदार आदि (विष्णुधर्मसूत्र ६१।१।५ ) । टहनियाँ शुष्क या अशुष्क दोनों हो सकती हैं, किन्तु पेड़ पर की सूखी नहीं
१८. वटासनार्कखदिरकरञ्जबदरसर्जनिम्बारिभेदापामार्गमालतीककुभबिल्वानामन्यतमम् । काषायं तिक्तं कटुकं च । विष्णुधर्मसूत्र ( ६१।१४-१५) । आम्रपालाशबिल्वानामपामार्गशिरीषयोः । खादिरस्य करञ्जस्य कदम्बस्य तथैव च ॥ अर्कस्य करवीरस्य कुटजस्य, विशेषतः । वाग्यतः प्रातरुत्थाय भक्षयेद्दन्तधावनम् ॥ अथर्ववेद की माण्डूकी शिक्षा ( ४११-२ ); सर्वे कण्टकिनः पुण्याः क्षीरिणश्च यशस्विनः । नारव; आम्रपुन्नागबिल्वानामपामार्गशिरीषयोः । भक्षयेत् प्रातरुत्थाय वाग्यतो दन्तधावनम् ॥ अंगिरा । ये सभी उद्धरण स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० १०५-१०६) में पाये जाते हैं। "सर्वे कण्टकिनः -- यशस्विनः " नृसिंहपुराण (५८/४९ ) का है।
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