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धर्मशास्त्र का इतिहास
मनु (४/२०३), विष्णुधर्मसूत्र (६४।१-२ एवं १५-१६), याज्ञवल्क्य ( १ । १५९), दक्ष ( २/४३ ), व्यासस्मृति ( ३।७-८), शंख ( ८1२) तथा अन्य लोगों का कथन है कि प्रति दिन स्वाभाविक जल में अर्थात् नदियों, वापियों ( मन्दिरों से सम्बद्ध), झीलों, गहरे कुण्डों एवं पर्वत-प्रपातों में स्नान करना चाहिए। किसी दूसरे के जल ( कूप या कुण्ड आदि) में स्नान नहीं करना चाहिए, किन्तु अन्यत्र जल न हो तो कुण्ड के जल में से ३ या ५ मुट्ठी मिट्टी निकालकर या कूप में से ३ या ५ घड़ा जल निकालकर स्नान करना चाहिए। इस विषय में बात यह है कि ऐसा न करने से कुण्ड या कूप वाला व्यक्ति स्नान करनेवाले के पुण्य का भागी हो जायगा (बौधायनधर्मसूत्र २।३।७ ), या स्नान करनेवाला उसके पाप का भागी हो जायगा (मनु ४।२०१ २०२ ) । यदि उपर्युक्त ढंग का स्वाभाविक जल न प्राप्त हो सके तो अपने घर के आँगन में कूपजल से इस प्रकार स्नान करना चाहिए कि वस्त्र भीग जायें। मनु (४१२०३ ) में प्रयुक्त नदी एवं गर्त का अर्थ यों है--नदी वह है जो कम-से-कम ८००० धनुष की लम्बाई की हो, इससे छोटे अन्य नदीनाले गर्त कहे जाते हैं। श्रावण एवं भादों में नदियाँ रजस्वला होती हैं (गन्दे जल वाली होती हैं) अतः उनमें स्नान वर्जित है, केवल उन्हीं नदियों में इन महीनों में स्नान करना चाहिए जो समुद्र में मिलती हैं । किन्तु उपाकर्म, उत्सर्ग, मरण, ग्रहण के समय इन नदियों में भी स्नान करना चाहिए । विष्णुधर्मसूत्र (६४।१७ ) के अनुसार क्रम से निम्नोक्त जल अपेक्षाकृत अच्छा माना जाता है; पात्र में रखा हुआ जल, कुण्ड-जल प्रपात - जल, नदी का जल, भद्र लोगों द्वारा प्राचीन समय से प्रयुक्त जल एवं गंगा नदी का जल ।
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विभिन्न सूत्रों, स्मृतियों एवं निबन्धों में स्नान - विधि विभिन्न ढंगों से वर्णित है । गोमिलस्मृति ( १1१३७ ) के मत से प्रातः एवं मध्याह्न स्नान की विधि समान है । श्रौत यज्ञ करनेवालों के लिए प्रातःकाल का स्नान संक्षिप्त होता है। विष्णुधर्मसूत्र ( ६४ । १८-२२ ) के अनुसार शरीर से धूल झाड़कर तथा जल में एवं भुरभुरी मिट्टी से गन्दगी स्वच्छ करके जल में उतरना चाहिए, तब ऋॠग्वेद की तीन ऋचाओं ( १०/९/१- ३ ) के साथ जल का अभिमन्त्रण (आह्वान) करना चाहिए ("आपोहिष्ठा ०"), इसी प्रकार चार मन्त्र ( " हिरण्यवर्णाः", तैत्तिरीय संहिता ५।६।१।१-२ एवं "इदमापः प्रवहत”, ऋग्वेद १।२३।२२ या १०।९।८) कहने चाहिए । पानी में खड़े होकर तीन बार 'अघमर्षण' सूक्त (ऋग्वेद १०।१०९।१-३, ऋतं च सत्यम् आदि) या "तद् विष्णोः परमं पदम् ” (ऋग्वेद १।२२।२० ) या द्रुपदा गायत्री ( वाजसनेयी संहिता २०२०) या " युञ्जते मनः" के साथ अनुवाक (ग्वेद ५।८१११-५) या पुरुषसूक्त (ऋग्वेद १०।१०।१-१६) पढ़ना चाहिए। स्नान करने के उपरान्त भीगे कपड़ों के साथ जल में ही देवताओं एवं पितरों का तर्पण करना चाहिए । यदि वस्त्र परिवर्तन कर लिया हो तो पानी से बाहर आने पर भी तर्पण हो सकता है। आजकल भी बहुत-से ब्राह्मण पानी में खड़े होकर पुरुषसूक्त का पाठ करते । और देखिए शंखस्मृति (९), मदनपारिजात ( पृ० २७० - २७१), गृहस्थरत्नाकर ( पृ० २०६ २०८ ) एवं पराशरमाधवीय ( १।१, पृ० २७४ -२७५) आदि, जहाँ शंखस्मृति (अध्याय ९) उद्धृत है । कात्यायन के स्नानसूत्र ( गृहस्थरत्नाकर, पृ० २०८-२११ में उद्धृत ) में मी स्नान - विधि सविस्तर वर्णित है, जिसे यहाँ स्थानाभाव से नहीं दिया जा रहा है।
अपरार्क द्वारा उद्धृत योगियाज्ञवल्क्य में आया है कि यदि कोई विस्तार के साथ स्नान न करना चाहे तो संक्षेप में इतना ही करना चाहिए- -जल का अभिमन्त्रण, आचमन, तत्र मार्जन (कुश से शरीर पर जल छिड़कना), इसके उपरान्त स्नान तथा अघमर्षण (ऋग्वेद १०।१९०११ - ३ ) । गृहस्थरत्नाकर ( पृ० २१५-२१७) पद्मपुराण एवं नृसिंहपुराण की विधि उद्धृत करके कहता है कि पद्मपुराण की विधि सभी वर्णों के लिए मान्य है, सभी वैदिक शाखाओं के लिए समान है, केवल शूद्रों के लिए वैदिक मन्त्रपाठ वर्जित है । स्मृत्यर्थसार ( पृ० २८) ने भी स्नान का एक संक्षिप्त वर्णन उपस्थित किया है।
स्नान करते समय कुछ नियमों का पालन परमावश्यक है । गौतम ( ९।६० ) के अनुसार वस्त्रहीन होकर
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