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धर्मशास्त्र का इतिहास (विष्णुधर्मसूत्र ६११८ एवं नृसिंहपुराण ५८६४६)। उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके दन्तधावन करना चाहिए, न कि पश्चिम या दक्षिण (विष्णुधर्मसूत्र ६१।१२-१३)। विष्णुधर्मसूत्र (६१।१६-१७) के मत से टहनी बारह अंगुल लम्बी एवं कानी अंगुली की पोर जितनी मोटी होनी चाहिए। उसे धोकर प्रयोग में लाना चाहिए तथा प्रयोग के उपरान्त गन्दे स्थान में नहीं फेंकना चाहिए। लम्बाई के विषय में कई मत हैं। नृसिंहपुराण (५८१४९,५०) के मत से आठ अंगुल या एक बित्ता (प्रादेश), गर्ग (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १०५ में उद्धृत) के मत से चारों वर्णो तथा स्त्रियों के लिए कम से १०, ९,८,७ या ४ अंगुल लम्बी टहनी होनी चाहिए। ईंट के टुकड़ों, मिट्टी या प्रस्तरों या खाली अंगलियों से (अंगठा एवं अनामिका के सिवा) मंह नहीं धोना चाहिए (लघ शातातप ८,७३, स्मतिचन्द्रिका १, पृ० १०६)।
___ लघु हारीत एवं नृसिंहपुराण (५८।५०-५२) के मत से प्रतिपदा, पर्व की तिथियों (जिस दिन चन्द्र दिखाई पड़े, पूर्ण मासी, अमावस, अष्टमी, चतुर्दशी तथा उस दिन जब सूर्य नयी राशि में जाय, देखिए विष्णुपुराण ३।११३११८), षष्ठी, नवमी या जिस दिन दातुन न मिले, दन्तधावन का त्याग होना चाहिए तथा केवल १२ कुल्लों (गण्डूषों) से मुंह धो लेना चाहिए। पठीनसि (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १०६) के मत से घास, पत्तियों, जल एवं अनामिका को छोड़कर किसी भी अँगुली से दन्तधावन हो सकता है। दन्तविहीन लोग गण्डूषों (कुल्लों से या मुख में पानी भरकर) से मुख स्वच्छ कर सकते हैं। जिस दिन वजित न हो, उस दिन जिह्वा को भी इसी प्रकार रगड़कर स्वच्छ करना चाहिए। श्राद्ध के दिन, यज्ञ के दिन, नियम पालते समय, पति के विदेश रहने पर, अजीर्ण होने पर, विवाह के दिन, उपवास या व्रत में (स्मृत्यर्थसार, पृ० २५) दन्तधावन नहीं होना चाहिए। विष्णुधर्मसूत्र (६१।१६) ने न केवल प्रातःकाल, प्रत्युत प्रत्येक भोजन के उपरान्त दन्तधावन की बात कही है, ऐसा केवल (देवल के अनुसार) दाँतों के बीच के अन्नांश को निकालने के लिए किया जाता है।
स्नान दन्तधावन के उपरान्त स्नान किया जाता है। आचमन, स्नान, जप होम एवं अन्य कृत्यों में कुश को दाहिने हाथ में रखना होता है, अतः कुश के विषय में यहाँ कुछ लिख देना अनिवार्य है।
कुशों का उपयोग-कूर्मपुराण के अनुसार बिना दर्भ एवं यज्ञोपवीत के जो कृत्य किया जाता है, उससे इहलोक एवं परलोक में कोई फल नहीं मिलता (कृत्यरत्नाकर, पृ० ४८ में उद्धृत)। शातातप के अनुसार "जप, होम, दान, स्वाध्याय (वेदाध्ययन) या पितृतर्पण के समय दाहिने हाथ में सोना, चांदी एवं कुश रखने चाहिए" (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १०८)। आचमन आदि करते समय दाहिने हाथ या दोनों हाथों में दर्भ का पवित्र (अँगूठी के समान कुशों का गोल छल्ला) रखना चाहिए, जो अनामिका अँगुली में पहना जाता है; या उस समय दाहिने हाथ में केवल कुश रखना चाहिए। कुश-धारण कई प्रकार से होता है। भाद्रपद (अमान्त श्रावण) मास की अमावस को कुश एकत्र करने चाहिए, क्योंकि उस दिन एकत्र किये गये कुश कमी बासी (पुराने) नहीं पड़ते और पुनः प्रयोग में लाये
१९. शातातपः। जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृतर्पणे। अशून्यं तु करं कुर्यात्सुवर्णरजतः कुशः॥ स्मातचन्द्रिका १, १० १०८; देखिए स्मृत्यर्यसार। अत्र चत्वारः पक्षाः। हत्तद्वये वर्भधारणं हस्तद्वये पवित्रधारणं दक्षिणे पवित्र वामे कुशा दक्षिण एवोभयमिति। आचाररत्नाकर, पृ० २४। देखिए गोभिलस्मृति १०२८ (अपरार्क द्वारा प० ४३ एवं ४८० में उद्धृत)।
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