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स्नान नहीं करना चाहिए, और न सारे कपड़ों के साथ ही, केवल नीचे का वस्त्र पर्याप्त है । मनु (४।२९ ) के अनुसार खाने के उपरान्त स्नान नहीं करना चाहिए। जल के मीतर मूत्र त्याग करना एवं शरीर रगड़ना नहीं चाहिए, यह कृत्य किनारे पर आकर करना चाहिए। जल को पैरों से न पीटना चाहिए और न एक ओर से हलकोरा देकर सारे जल को हिला देना चाहिए ( गृहस्थरत्नाकर, पृ० १९१-१९२; वसिष्ठ ६।३६-३७ ) ।
आधुनिक काल के साबुन की भाँति प्राचीन काल में मिट्टी का प्रयोग होता था । आजकल देहातों में नारियाँ अपने सिर को चिकनी मिट्टी से या बेसन से घोती हैं। मिट्टी पवित्र स्थान से ली जाती थी, न कि वल्मीक, चूहों के बिल या जल के भीतर वाली न मार्ग, पेड़ की जड़, मन्दिर के पास की। किसी व्यक्ति के प्रयोग के उपरान्त अवशेष मिट्टी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। लघु हारीत ( ७०-७१ ) के मत से आठ अंगुल नीचे की मिट्टी का प्रयोग करना चाहिए, या वहाँ की जहाँ लोग बहुत कम जाते हैं ।
स्नान
ब्रह्मचारियों को आनन्द लेकर तथा क्रीडा-कौतुक के साथ स्नान नहीं करना चाहिए; केवल लकड़ी की भाँति पानी में डुबकर नहाना चाहिए।
महाभारत, दक्ष एवं अन्य लोगों के मत से स्नान द्वारा दस गुणों की प्राप्ति होती है, यथा बल, रूप, स्वर एवं वर्ण की शुद्धि, शरीर का मधुर एवं गन्धयुक्त स्पर्श, विशुद्धता, श्री, सौकुमार्य एवं सुन्दर स्त्री । "
नैमित्तिक स्नान
शंखस्मृति ( ८1१-११), अग्निपुराण तथा अन्य लोगों के मत से जल-स्नान छः श्रेणियों में बाँटा गया हैनित्य, नैमित्तिक, काम्य, क्रियांग, मलापकर्षण (या अभ्यंग स्नान) एवं क्रिया-स्नान । नित्य स्नान ( प्रति दिन का स्नान ) ऊपर वर्णित है, नीचे हम अन्य स्नानों पर थोड़ा-थोड़ा लिख रहे हैं । किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर या कुछ विशिष्ट व्यक्तियों या पदार्थों से स्पर्श हो जाने पर जो स्नान किया जाता है, (भले ही इसके पूर्व नित्य स्नान हो चुका हो) उसे नैमित्तिक स्नान कहते हैं, यथा पुत्रोत्पत्ति पर, यज्ञ के अन्त में, किसी सम्बन्धी के मर जाने पर, ग्रहण के समय आदि (पराशर १२ । २६ एवं देवल)। इसी प्रकार किसी जाति च्युत व्यक्ति को ( जिसने कोई भयंकर अपराध किया हो), चाण्डाल को, सूतिका को, रजस्वला को, शव को शव छूनेवाले या शव ले जानेवाले को छू लेने पर वस्त्रसहित स्नान करने को नैमित्तिक स्नान कहते हैं ( गौतम १४।२८-२९, वसिष्ठ ४।३८, मनु ५।८५ एवं १०३, प्राज्ञवल्क्य ३।३०, लघु- आश्वलायन २०/२४) । मनु ( ५ | १४४), शंखस्मृति ( ८1३), मार्कण्डेयपुराण (३४१३२-३३), ब्रह्मपुराण (११३।७९), पराशर (७।२८ ) के अनुसार उलटी करने पर, कई ( दस या अधिक) बार मल-त्याग करने पर, केश बनवा लेने पर, दुःस्वप्न देखने पर, संम्भोग कर लेने पर कब्रगाह या श्मशान में जाने पर, चिता के धूम से शरीर घिर जाने पर, यज्ञ का स्तम्भ (यूप) छू लेने पर ( जिसमें बाँधकर पशु को बलि देते हैं), मानव-अस्थि छू जाने पर अपने को पवित्र करने के लिए स्नान करना चाहिए। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( ११५/१५/१६) ने लिखा है कि कुत्ता के काट लेने पर या छू लेने पर स्नान करना चाहिए। इसी प्रकार बौद्धों, पाशुपतों, जैनों, लोकायतों, नास्तिकों, घृणित कार्य करनेवाले द्विजातियों एवं शूद्रों का स्पर्श होने पर वस्त्र के साथ स्नान करना चाहिए। याज्ञवल्क्य ( ३३३०) की टीका
२०. गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते बलं रूपं स्वरवर्णप्रशुद्धिः । स्पर्शश्च गन्धश्च विशुद्धता च श्रीः सौकुमार्य प्रवराश्च नार्यः ॥ उद्योगपर्व ३७|३३| बक्ष (२।१३ ) ने भी ऐसा ही कहा है (स्मृत्यर्थसार, पु० २५) ।
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