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डाले जाने वाले पदार्थों के विषय में बहुत मतभेद है। आश्वलायन एवं आपस्तम्ब० (१३।१०) के अनुसार मधु एवं दही या घृत एवं दही का मिश्रण ही मधुपर्क है। पारस्कर० आदि ने मघु, दही एवं घृत-तीनों के मिश्रण की चर्चा की है। कुछ ने इन तीनों के साथ भुना यव (जो) अन्न एवं बिना भुना हुआ यव अन्न भी जोड़ दिया है। कुछ ने दही, मधु, घृत, जल एवं अन्न को मधुपर्क के लिए उल्लिखित किया है (हिरण्यकेशि० १।१२।१०-१२) । कौशिकसूत्र (९२) ने नौ प्रकार के मिश्रण की चर्चा की है-नाम (मधु एवं दही),ऐन (पायस का), सौम्य (दही एवं घृत), पौष्म (घृत एवं मट्ठा), सारस्वत (दूध एवं घृत), मांसल (आसव एवं घृत, इनका प्रयोग केवल सौत्रामणि एवं राजसूय यज्ञों में होता है), वारण (जल एवं घृत), श्रावण (तिल का तेल एवं घृत), पारिवाजक (तिल-तेल एवं खली)। कुछ गृह्यसूत्रों के अनुसार इसमें यथासंभव वेहत्, बकरी, हिरन आदि के मांस का भी विधान है। जब मांस खाना अच्छा नहीं समझा जाने लगा तो उसके स्थान पर पायस की चर्चा होने लगी। आदिपर्व (६०।१३-१४) में आया है कि जनमेजय ने व्यास को मधुपर्क दिया था और व्यास ने उसमें से मांस का त्याग कर दिया था। आधुनिक काल में विवाह को छोड़कर प्रायः किसी अन्य अवसर पर मधुपर्क नहीं दिया जाता, अतः इसकी परिपाटी टूट-सी गयी है।
कुम्भ-विवाह अब हम विवाह-सम्बन्धी कुछ अन्य कृत्यों का वर्णन उपस्थित करेंगे। वैधव्य को हटाने के लिए कुम्भ-विवाह नामक कृत्य किया जाता था। इसका विशद वर्णन हमें संस्कारप्रकाश (पृ० ८६८), निर्णयसिन्धु (पृ० ३१०), संस्कारकौस्तुभ (पृ० ७४६), संस्काररत्नमाला (पृ० ५२८) आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है। विवाह के एक दिन पूर्व पुष्प आदि से एक धड़ा सजाया जाता था जिसमें विष्णु की एक स्वर्णिम मूर्ति रखी रहती थी। कन्या चारों ओर से सूत्रों से घेर दी जाती थी, और वर को लम्बी आयु देने के लिए वरुण की पूजा की जाती थी। इसके उपरान्त कुम्भ को पानी में फोड़ दिया जाता था और उसका जल पांच टहनियों से कन्या पर छिड़क दिया जाता था और ऋग्वेद (७।४९) का पाठ किया जाता था, अन्त में ब्रह्मभोज किया जाता था।
अश्वत्थ-विवाह संस्कारप्रकाश (पृ० ८६८-८६९) ने कुम्भ-विवाह के समान अश्वत्थ-विवाह का वर्णन सौभाग्य (सोहाग) के लिए अर्थात् वैधव्य न हो, इसके लिए किया है। यहाँ कुम्भ के स्थान पर अश्वत्थ की पूजा होती है और स्वर्णिम विष्णुमूर्ति पूजा के उपरान्त किसी ब्राह्मण को दे दी जाती है।
__ अर्क-विवाह यदि एक-एक करके दो पत्नियों की मृत्यु हो जाय तो तीसरी पत्नी से विवाह करने के पूर्व व्यक्ति को अर्कविवाह नामक कृत्य करना पड़ता था। इसका वर्णन संस्कारप्रकाश (पृ० ८७६-८८९), संस्कारकौस्तुम (पृ० ८१९), निर्णयसिन्धु (पृ० ३२८) आदि में पाया जाता है। बौधायनगृह्मशेषसूत्र (५) में भी इसका वर्णन पाया जाता है।
परिवेदन परिवेदन के विषय में प्राचीन प्रन्थों में विस्तार के साथ वर्णन मिलता है, किन्तु यह कृत्य आधुनिक काल में अविदित-सा ही है। जब कोई व्यक्ति अपने ज्येष्ठ माता के रहते, अथवा जब कोई व्यक्ति बड़ी बहिन के रहते उसकी छोटी बहिन से विवाह करता तो इसे परिवेदन कहा जाता था, और इसकी घोर रूप में भर्त्सना की जाती थी। क्योंकि
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