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अध्याय १३
नियोग
नियोग का अर्थ है-किसी नियुक्त पुरुष के सम्मोग द्वारा पुत्रोत्पत्ति के लिए पत्नी या विधवा की नियुक्ति । इस प्रथा के उद्गम एवं उपयोग के विषय में विविध मत-मतान्तर हैं। सर्वप्रथम हम इस प्रथा के समर्थक धर्मशास्त्रग्रन्थों की उक्तियों की जांच करेंगे। गौतम (१८॥४-१४) ने इसकी चर्चा की है; "पतिविहीन नारी यदि पुत्र की अभिलाषा रखे तो अपने देवर द्वारा प्राप्त कर सकती है। किन्तु उसे गुरुजनों से आज्ञा ले लेनी चाहिए और सम्भोग केवल ऋतकाल में (प्रथम चार दिनों को छोडकर) ही करना चाहिए। वह सपिण्ड, सगोत्र, सप्रवर या अपनी जाति वाले से ही (जब देवर न हो तो) पुत्र प्राप्त कर सकती है। कुछ लोगों के मत से यह प्रथा केवल देवर से ही संयुक्त है। वह दो से अधिक पुत्र (इस प्रथा द्वारा) नहीं प्राप्त कर सकती।' गौतम (१८।११) का कहना है कि जीवित पति द्वारा प्रार्थित स्त्री जब (नियोग से) पुत्र उत्पन्न करती है तो वह उसी (पुरुष) का पुत्र होता है । गौतम (२८१३२) ऐसे पुत्र को क्षेत्रज और उसकी माता को क्षेत्र की संज्ञा देते हैं। इसी प्रकार उस स्त्री या विधवा का पति क्षेत्री या क्षेत्रिक (जिसकी वह पत्नी या विधवा होती है) तथा पुत्रोत्पत्ति के लिए नियुक्त पुरुष बीजी (जो बीज बोता है) या नियोगी (वसिष्ठ १७।६४, अर्थात् जो नियुक्त हो) कहलाता है।
वसिष्ठधर्मसूत्र (१७१५६-६५) ने लिखा है-विघया का पति या भाई (या मृत पति का भाई) गुरुओं को (जिन्होंने पढ़ाया हो या मृतात्मा के लिए यज्ञ करया हो) तथा सम्बन्धियों को एकत्र करे और उसे (विधवा को) मृत के लिए पुत्रोत्पत्ति के लिए नियोजित करे। उन्मादिनी विधवा, अपने को न सँभाल सकने वाली (दुःख के मारे), रोगी या बूढ़ी विधवा को इस कार्य के लिए नहीं नियोजित करना चाहिए। युवावस्था के ऊपर १६ वर्ष तक ही नियोग होना चाहिए। बीमार पुरुष को नहीं नियुक्त करना चाहिए। नियुक्त व्यक्ति को पति की भाँति प्रजापति वाले मंगल मुहूर्त में विधवा के पास जाना चाहिए और उसके साथ न तो रतिक्रीडा करनी चाहिए, न अश्लील भाषण करना
१. अपतिरपत्यलिप्सुर्वेवरात्। गुरुप्रसूता नर्तुमतीयात्। पिण्डगोत्रषिसम्बन्धेभ्यो योनिमात्राद्वा। नादेवरादित्येके। नातिद्वितीयम् ॥ गौतम (१८१४-८)। हरदत्त ने 'नातिद्वितीयम्' को दूसरे ढंग से समझाया है ; 'प्रथमअपत्यमतीत्य द्वितीयं न जनयेदिति', अर्थात् एक से अधिक पुत्र नहीं उत्पन्न करना चाहिए।
२. देखिए मनु (९।३२, ३३ एवं ५३) जहाँ क्षेत्र, क्षेत्रिक, बीजी आदि का अर्थ दिया हुआ है । गौतम (१८।११) एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१३।६) ने 'क्षेत्र का प्रयोग पत्नी के लिए किया है। गौतम (४।३) में 'बीजी' "द आया है। मनु (९।६०-६१) ने व्यक्त किया है कि कुछ लोगों के मत से नियोग द्वारा केवल एक और कुछ लोगों के मत से दो पुत्र उत्पन्न किये जा सकते हैं।
__३. प्राजापत्य मुहूर्त को ही ब्राह्ममुहूर्त कहा जाता है, अर्थात् रात्रि का अन्तिम प्रहर (सूर्योदय के पूर्व एक घण्टे १३ : Pा, अर्थात सूर्योजन के ४ मिनट पूर्व)। देखिए वसिष्ठ (१२।४७) एवं मन (४।९२)।
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