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धर्मशास्त्र का इतिहास दोगे।"२ अथर्ववेद के अनुसार खड़े होकर मूत्रत्याग निन्दाजनक माना जाता है (७।१०२ या १०७।१); "मैं खड़ा होकर मूत्र न त्यागूंगा, देवता मेरा अमंगल न करें।" गौतम (९।१३, १५,३७-३८), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।११।३०, १५-३० एवं १११।३१।१-३), वसिष्ठधर्मसूत्र (६।१०-१९ एवं १२॥११-१३), मनु (४,४५-५२, ५६, १५१), याज्ञवल्क्य (१३१६-१७, १३४, १५४), विष्णुधर्मसूत्र (६०।१-२६), शंख" (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्य १३१३४ द्वारा उद्धृत), वायुपुराण (७८.५९-६४ एवं ७९।२५-३१) एवं वामनपुराण (१४।३०-३२) के कथनों को हम इस प्रकार संक्षिप्त कर सकते हैं
देह की स्वच्छता एवं शुद्धि के नियम
मार्ग, राख, गोबर, जोते एवं बोये हुए खेतों, वृक्ष की छाया, नदी या जल, घास या सुन्दर स्थलों, वेदी के लिए बनी इंटों, पर्वतशिखरों, गिरे-पड़े देव-स्थलों या गोशालाओं, चींटियों के स्थलों, कबों या छिद्रों, अन्न फटकारने के स्थलों, बालुकामय तटों में मल-मूत्र त्याग नहीं करना चाहिए। अग्नि, सूर्य, चन्द्र, ब्राह्मण, जल, किसी देवमूर्ति, गाय, वायु की ओर मुख करके भी मलमूत्र-त्याग नहीं करना चाहिए । खुली भूमि पर भी ये कृत्य नहीं किये जाने चाहिए, हाँ, सूखी टहनियों, पत्तियों एवं घासों वाली भूमि पर ये कृत्य सम्पादित हो सकते हैं। दिन में या गोधूलि के समय "सर ढंककर उत्तराभिमुख तथा रात्रि में दक्षिणाभिमुख मलमूत्र-स्याग करना चाहिए, किन्तु जब भय हो या कोई आपत्ति हो तो किसी भी दिशा में ये कृत्य सम्पादित हो सकते हैं। खड़े होकर या चलते हुए मूत्र-त्याग नहीं करना चाहिए (मनु ४।४७) और न बोलना ही चाहिए।" बस्ती से दूर दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम जाकर ही मलमूत्र त्याग करना चाहिए। मनु (५।१२६.) एवं याज्ञवल्क्य (१।१७) के अनुसार मलमूत्र-त्याग के उपरान्त अंगों को पानी से एवं मिट्टी के भागों से इतना स्वच्छ कर देना चाहिए कि गन्ध या गन्दगी दूर हो जाय। मनु (५।१३६ एवं १३७) एवं विष्णुधर्मसूत्र (६०।२५-२६) के अनुसार मिट्टी का एक भाग लिंग (मूत्रेन्द्रिय) पर, तीन माग मलस्थान पर, दस बायें हाथ में, सात दोनों हाथों में तथा तीन दोनों पैरों में लगाने चाहिए। शौच की इतनी सीमा गृहस्थों के लिए है, किन्तु ब्रह्मचारियों, वानप्रस्थों एवं संन्यासियों को दूने, तिगुने, चौगुने, जितने की आवश्यकता हो उतने मिट्टी के भागों से स्वच्छता करनी चाहिए। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य १११७) ने लिखा है कि इतने भागों की व्यवस्था केवल इसलिए है कि प्रयुक्त अंग ठीक से स्ववछ हो जायें, यों तो उतनी ही मिट्टी प्रयोग में लानी चाहिए जितनी से स्वच्छता प्राप्त हो जाय। यही बात गौतम (११४५-४६), वसिष्ठधर्मसूत्र (३।४८), मनु (५।१३४) एवं देवल में पायी जाती है। भद्र लोग मिट्टी के भाग की, जैसा कि स्मृतियों में वर्णित है, चिन्ता नहीं करते, वे उननी ही मिट्टी प्रयोग में लाते
१२. यश्च गां पदा स्फुरति प्रत्यङ् सूर्य च मेहति । तस्य वृश्चामि ते मूलं न च्छायां करवोऽपरम् ॥ अपर्ववेद १३॥११५६, मेक्याम्यूध्वंस्तिष्ठन्मा मा हिंसिपुरीश्वराः॥ अथर्ववेद ७।१०२ (१०७)।१।।
१३. न गोमय-कृष्टोप्त-भावल-चिति-स्मशान-वल्मीक-चम-सल-गोष्ठ-बिल-पर्वत-पुलिनेषु मेहेत भूताषारत्वात्। शंख (मिताक्षरा द्वारा याज्ञवल्क्य १२१३४ को व्याख्या में उवृत)।
१४. उचारे मैचूने व प्रनाये बन्तपावने। स्नाने भोजनकाले च षट् मान समाचरेत् ॥ हारीत (आह्निकप्रकाश, १० २६ में उड़त)। यही लघु-हारीत का ४०वा श्लोक है। अत्रि (३२३) ने लिखा है-"पुरी मधुने होमे प्रनाये बन्तपावने। स्नानभोजनजप्येष सवा मौनं समाचरेत् ॥
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