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सती प्रथा
लिया। शान्तिपर्व (१४८) में आया है कि एक कपोती अपने पति (कपोत) की मृत्यु पर अग्नि में प्रवेश कर गयी। स्त्रीपर्व (२६) में मृत कौरवों की अन्त्येष्टि-क्रिया का वर्णन हुआ है। जिसमें कौरवों के रयों, परिधानों, आयधों के जला देने की बात आयी है, किन्तु उनकी पत्नियों के सती होने की बात पर महाभारत मौन ही है।।
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि सती-प्रथा विशेषतः राजघरानों एवं बड़े-बड़े वीरों तक ही सीमित रही है, और वह भी बहुत कम । अपरार्क ने पैठीनसि, अंगिरा, व्याघ्रपाद आदि की उक्तियाँ उद्धृत करके बताया है कि इन धर्मशास्त्रकारों ने ब्राह्मण विधवाओं के लिए सती होना वजित माना है। निबन्धकारों ने इस निषेध को दूसरे ढंग से समझाया है-"ब्राह्मणों की पत्नियाँ अपने को केवल पतियों की चिता पर ही मस्म कर सकती हैं, यदि पति कहीं दूर विदेश में मर गया हो और वहीं जला दिया गया हो, तो उसकी पत्नी मृत्यु के समाचार से अपने को जला नहीं सकती।" उशना में आया है कि ब्राह्मण विधवा अपने को पति से अलग नहीं जला सकती। सम्भवतः इसी उक्ति को निबन्धकारों ने अपने मतों के प्रमाण में रखा है। व्यासस्मृति (२१५३) में आया है--"पति के शव का आलिंगन करके ब्राह्मणी को अग्निप्रवेश करना चाहिए; यदि वह पति के उपरान्त जीवित रहती है तो उसे अपना केश-शृङ्गार नहीं करना चाहिए और तप से शरीर को गला देना चाहिए।" रामायण (उत्तरकाण्ड १७।१५) में एक ब्राह्मणी के सती हो जाने की ओर संकेत है-ब्रह्मर्षि की पत्नी एवं वेदवती की माता ने रावण द्वारा छेड़े जाने पर अपने को जला डाला। महाभारत (स्त्रीपर्व २३॥३४) में द्रोणाचार्य की पत्नी कृपी विकीर्णकेशी के रूप में रोती हुई युद्धभूमि में आती है किन्तु अपने को जला डालने की कोई चर्चा नहीं करती है। इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणियों का विधवा रूप में जल जाना क्षत्रिय विधवाओं के जल जाने की प्रथा के बहुत दिनों उपरान्त आरम्भ हुआ है।
पति की मृत्यु पर विधवा के जल जाने को सहमरण या सहगमन या अन्वारोहण (जब विधवा मृत पति की चिता पर चढ़कर शव के साथ जल जाती है) कहा जाता है, किन्तु अनुमरण तब होता है जब पति और कहीं मर जाता है तथा जला दिया जाता है, और उसकी मस्म के साथ या पादुका के साथ या बिना किसी चिह्न के उसकी विधवा जलकर मर जाती है (देखिए अपरार्क, पृ० १११ नथा मदनपारिजात, पृ० १९८) । कालिदास के कुमारसम्भव (४।३४) में कामदेव के भस्म हो जाने पर उसकी पत्नी अग्नि-प्रवेश करना चाहती है, किन्तु वर्गिक स्वर उसे ऐसा करने से रोक देते हैं । गाथाशप्तशती (७।३२) में अनुमरण करने वाली एक नारी का उल्लेख हुआ है। कामसूत्र (६।३।५३) ने भी अनुमरण की चर्चा की है। वराहमिहिर ने उन विधवाओं के साहस की प्रशंसा की है जो पति के मरने पर अग्नि-प्रवेश कर जाती हैं (बृहत्संहिता ७४।१६) । बाण के हर्षचरित (उच्छ्वास ५) में हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन को मरता देखकर माता यशोमती के अग्नि प्रवेश का उल्लेख है किन्तु यह सती होने का उदाहरण नहीं कहा जायगा, क्योंकि यशोमती ने पति के मरण के पूर्व ही अपने को जला दिया। बाण ने हर्षचरित (५) में अनुमरण का भी आलंकारिक रूप से उल्लेख किया है। बाण की कादम्बरी ने अनमरण की बड़े-कड़े शब्दों में निन्दा की है। भागवतपुराण (१.१३।५७) ने धृतराष्ट्र के शव के साथ गान्धारी के भस्म होने की बात लिखी है। राजतरंगिणी में कई स्थानों (६।१०७, १९५; ७।१०३, ४७८) पर सती होने के उदाहरण मिलते हैं।
बहुत-से अभिलेखों में सती होने के उदाहरण प्राप्त होते हैं। इनमें सबसे प्राचीन गुप्त संवत् १९१ (५१० ई०) का है (गुप्त इंस्क्रिप्शंस, फ्लीट, प.० २१)। देखिए इरन या एरण प्रस्तर स्तम्भ-अभिलेख, जिसमें गोपराज की पत्नी का पति के साथ सती हो जाना उत्कीर्ण है ; इण्डियन एण्टीक्वेरो, जिल्द ९, पृ० १६४ में नेपाल अभिलेख (७०५ ई०), जिसमें धर्मदेव की विधवा राज्यवती अपने पुत्र महादेव को शासन-भार संभालने को कहती है और अपने को सता कर देना चाहती है ; बेलतुरु अभिलेख (९७९ शक संवत्), जिसमें देकब्ब नामक शूद्र स्त्री अपने पति की मृत्यु पर मातापिता के मना करने पर भी भस्म हो जाती है और उसके माता-पिता उसकी स्मृति में स्तम्भ खड़ा करते हैं; एपिप्रैफिया
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