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स्त्रियों का कर्तव्य
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महाभारत एवं पुराणों में पतिव्रता के विषय में अतिरंजित कथाएँ भरी पड़ी है। वनपर्व (६३।३८१३९) में आया है कि दमयन्ती ने उस नवयुवक शिकारो को शाप दिया, जो उसकी ओर काम क रूप से बढ़ रहा था, और वह मर गया। अनुशासनपर्व (१२३) में शाण्डिली ने सुमना कैकेयी से कहा कि उसने बिना काषाय वस्त्र (संन्यासियों के वस्त्र) धारण किये, बिना वल्कल धारण किये, बिना सिर मुंडाये या जटा रखाये देवत्व प्राप्त किया, क्योंकि वह पतिपरायण पत्नी के लिए व्यवस्थित सारे नियमों का पालन करती थी, यथा--पति को कर्कश वचन न कहना, पति द्वारा न खाये जानेवाले भोजन का त्याग, आदि। अनुशासनपर्व (१४६।४-६) में पतिव्रता स्त्रियों के नाम तथा उनके गुणों का बखान पाया जाता है। सावित्री ने पतिव्रता होने के कारण यम के हाथ से अपने पति के प्राण छुड़ा लिये। सावित्री एवं सीता के आदर्श भारतीय नारियों के गौरवपूर्ण आदर्श रहे हैं। वनपर्व (२०५-२०६) में भी पतिव्रता की गाथा है। शल्यपर्व (६३) में पतिव्रता नारी गान्धारी की शक्ति का वर्णन है; गान्धारी चाहने पर विश्व को भस्म कर सकती थी, सूर्य एवं चन्द्र की गति बन्द कर सकती थी। स्कन्दपुराण (३, ब्रह्मखण्ड, ब्रह्मारण्य-भाग, अध्याय ७) ने कतिपय पतिव्रताओं के नाम लिये हैं, यथा--अरुन्धती, अनसूया, सावित्री, शाण्डिल्या, सत्या, मेना, तथा लिखा है कि पतिव्रताएँ अपने पतियों को यमदूतों की पकड़ से उसी प्रकार खींच सकती हैं, जिस प्रकार व्यालग्राही (सँपेरा) बिल में से बलपूर्वक सर्प खीच लेता है, पतिव्रताएँ पति के साथ स्वर्गारोहण करती हैं और यमदूत उन्हें देखकर तुरंत भाग जाते हैं।
पत्नी का प्रमुख कर्तव्य है पति का आदर-सत्कार एवं सेवा करना, अतः उसे सदा पति के साथ रहना चाहिए और पति के घर में निवासस्थान पाने का उसका अधिकार है। पति के यहाँ उसे अपने भरण-पोषण का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। मनु (१०।११) के अनुसार 'बूढ़े माता-पिता, पतिव्रता स्त्री, छोटे बच्चे का भरण-पोषण एक सौ निकृष्ट कार्य करके भी करना चाहिए' (मेधातिथि-~मनु ३१६२ एवं ४।२५१, मिताक्षरा, याज्ञवल्क्य १।२२४ एवं २।१७५) । दक्ष (२०५६, लघु आश्वलायन १६७४) ने पोष्यवर्ग (वे लोग, जिनका प्रतिपालन प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह कितना ही दरिद्र हो, करना पड़ता है) के विषय में यों लिखा है-"माता-पिता, गुरु, पत्नी, बच्चे, शरण में आये हुए दीन त्र्यक्ति, अतिथि एवं अग्नि पोष्यवर्ग के अन्तर्गत आते हैं।" मनु (८३३८९) के कथनानुसार जो व्यक्ति अपने माता-पिता, पत्नी एवं पुत्र को जातिच्युत न होने पर भी छोड़ देता है तथा उनका भरण-पोषण नहीं करता है, वह राजा द्वारा ६०० पण का दण्ड पाता है। याज्ञवल्क्य (१६७४) के मत से पत्नी के भरण-पोषण पर ध्यान न देनेवाला व्यक्ति पाप का भागी होता है। पुन: याज्ञवल्क्य (११७६) के अनुसार आज्ञाकारी, परिश्रमी, पुत्रवती एवं मधुरभाषिणी पत्नी को छोड़ देने पर सम्पत्ति का १/३ भाग दे देना चाहिए, तथा सम्पत्ति न रहने पर उसके भरण-पोषण का प्रबन्ध करना चाहिए। यही बात नारद (स्त्रीपुंस, ९५) ने भी कही है। विष्णुधर्मसूत्र (५।१६३) के भत से पत्नी को छोड़ने पर चोर का दण्ड मिलना चाहिए। याज्ञवल्क्य (१९८१) के अनुसार पति को पत्नीपरायण होना चाहिए, क्योंकि पत्नी की (गर्त में गिरने से) रक्षा करनी चाहिए, अर्थात् उसकी रक्षा करना आवश्यक है। याज्ञवल्क्य (११७८), मनु (४।१३३-१३४), अनुशा० पर्व (१०४।२१) एवं मार्कण्डेयपुराण (३४१६२-६३) ने व्यभिचार की बड़ी निन्दा की है। याज्ञवल्क्य (१९८०) की टोका में विश्वरूप ने लिखा है कि स्त्री का रक्षण उसके प्रति निष्ठा रखने से सम्भव है, मारने-पीटने से नहीं. क्योंकि मारने-पीटने से उसके (पत्नी के) जीवन का डर रहता है। मनु (०१५-९, ९।१०-१२) ने स्त्री-रक्षा की बात चलायी है और कहा है कि यह बन्दी बनाकर रखने या शक्ति से सम्भव नहीं है, प्रत्युत पत्नी को निम्नलिखित कार्यों में संलग्न कर देने से ही सम्भव है, यथा आय-व्यय का ब्यौरा रखना, कुर्सी-मेज (उपस्कर) को ठीक करना, घर को सुन्दर एवं पवित्र रखना, मोजन बनाना। उसे (पत्नी को) सदैव पतिव्रतधर्म के विषय में बताना चाहिए। किन्तु पति को गुरु या पिता की भांति शारीरिक दण्ड देने का भी अधिकार है, यथा रस्सी या बाँस की पतली छड़ी से पीठ पर, सिर पर नहीं, मारना। इस विषय में देखिए मनु (८।२९९-३००) एवं मत्स्यपुराण (२२७।१५२-१५४)।
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