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धर्मशास्त्र का इतिहास
पति को पत्नी की जीविका का प्रबन्ध तो करना ही पड़ता था, साथ ही साथ उसे उसके साथ संभोग भी करना पड़ता था, क्योंकि ऐसा न करने पर उस पर भ्रूण हत्या का दोष लगता था । पत्नी को भी पति की सम्भोग इच्छा पूर्ण करनी पड़ती थी, क्योंकि ऐसा न करने पर वह भी भ्रूणहत्या की अपराधिनी, निन्दनीय और त्याज्य हो जाती थी।**
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व्यभिचार एवं स्त्रियां
भारतीय ऋषियों ने अपनी मानवता का परिचय सदैव दिया है। यदि पत्नी का व्यभिचार सिद्ध हो जाय तो पति उसे घर के बाहर कर उसे छोड़ नहीं सकता था। गौतम (२२/३५ ) के मत से सतीत्व नष्ट करने पर स्त्री को प्रायश्चित्त करना पड़ता था, किन्तु खाना कपड़ा देकर उसकी रक्षा की जाती थी । याज्ञवल्क्य ( १।७०-७२ ) ने घोषित किया है--" अपना सतीत्व नष्ट करनेवाली स्त्री का अधिकार ( नौकर-चाकर आदि पर ) छीन लेना चाहिए, उसे गन्दे वस्त्र पहना देने चाहिए, उसे उतना ही भोजन देना चाहिए जिससे वह जी सके, उसकी भर्त्सना करनी चाहिए और पृथिवी पर ही सुलाना चाहिए, मासिक धर्म की समाप्ति के उपरान्त वह पवित्र हो जाती है। किन्तु यदि वह व्यभिचार
संभोग से गर्भवती हो जाय तो उसे त्याग देना चाहिए। यदि वह अपना गर्भ गिरा दे (भ्रूणहत्या कर ले ), पति को मार डाले या कोई ऐसा पाप करे जिसके कारण वह जातिच्युत हो जाय तो उसे घर से निकाल देना चाहिए।" मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (१।७२) की व्याख्या में लिखा है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों की पत्नियां यदि शूद्र से व्यभिचार करके गर्म धारण न किये हों तो प्रायश्चित्त करके पवित्र हो सकती हैं, किन्तु अन्य परिस्थितियों में नहीं । मिताक्षरा ने यह भी कहा है कि त्यागे जाने का तात्पर्य है धार्मिक कृत्य न करने देना तथा संभोग न करना, न कि उसे घर के बाहर सड़क पर रख देना । उसे घर में ही पृथक् रखकर उसके भोजन-वस्त्र की व्यवस्था कर देनी चाहिए (याज्ञवल्क्य ३ । २९७ ) । वसिष्ठ ( २१।१० ) के मत से केवल चार प्रकार की पत्नियाँ त्यागे जाने योग्य हैं--शिष्य से संभोग करनेवाली, पति
गुरु से संभोग करने वाली, विशेष रूप से वह जो पति को मार डालने का प्रयत्न करे और चौथे प्रकार की वह जो नीची जाति ( यथा शूद्र जाति) के किसी पुरुष से संभोग करे।" नारद ( स्त्रीपुंस, ९१) ने लिखा है - " व्यभिचारिणी स्त्री का मुण्डन कर दिया जाना चाहिए, उसे पृथिवी पर सोना चाहिए, उसे निकृष्ट भोजन-वस्त्र मिलना चाहिए और उसका कार्य होना चाहिए पति का घर-द्वार स्वच्छ करना ।" नीच जाति के पुरुष के साथ व्यभिचार करने पर गौतम ( २३/१४), शान्तिपर्व ( १६५।६४), मनु ( ८1३७१) ने बहुत कड़े दण्ड की व्यवस्था की है, अर्थात् उसे राजा की आज्ञा से कुत्तों द्वारा नोचवाकर मरवा डालना चाहिए। व्यास ( २।४९-५०) ने लिखा है -- " व्यभिचार में पकड़ी गयी पत्नी को घर में ही रखना चाहिए, किन्तु धार्मिक कृत्यों एवं संभोग के उसके सारे अधिकार छीन लेने चाहिए, धन-सम्पत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं रहेगा; उसकी भर्त्सना की जाती रहेगी; किन्तु जब व्यभिचार के उपरान्त उसका मासिक धर्म आरम्भ हो
१८. त्रीणि वर्षाण्यतुमतीं यो भार्यां नाधिगच्छति । स तुल्यं भ्रूणहत्याया दोषमुच्छत्यसंशयम् ॥ ऋतुस्नातां तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति । पितरस्तस्य तन्मासं तस्मिन्रजसि शेरते ॥ भर्तुः प्रतिनिवेशेन या भार्या स्कन्दयेदृतुम् । तां ग्राममध्ये विख्याप्य भ्रूणघ्नीं निर्धमेद् गृहात् ॥ बौ० घ० सू० (४।१।१८-२०, २२ ) । विश्वरूप ने याज्ञवल्क्य( ११७९ ) की टीका में इन श्लोकों को बौधायन- रचित माना है। संवर्त (९८) ने भी बौधायन की बात कही है। यही बात पराशर (४।१४-१५) में भी पायी जाती है।
१९. ब्राह्मणक्षत्रियविशां भार्याः शूद्रेण संगताः । अप्रजाता विशुध्यन्ति प्रायश्चित्तेन नेतराः ॥ चतस्त्रस्तु परित्याज्याः शिष्यना गुरुगा च या । पतिघ्नी च विशेषेण जुंगितोपगता च या ॥ वसिष्ठ (२१।१२ एवं १० ) ।
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