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विषवा-धर्म कट्टर पण्डितों ने व्यासस्मृति (२०५३) पर भी अपना मत आश्रित रखा है; “(पति के मर जाने पर) ब्राह्मणी को पति का शव गोद में लेकर अग्नि-प्रवेश करना चाहिए, यदि वह जीवित रहती (सती नहीं होती) है तो उसे त्यक्तकेश होकर तप से अपने शरीर को सुखा डालना चाहिए।" यहाँ “त्यक्तकेशा" शब्द के तीन अर्थ सम्भव हैं-- (१) वह जिसने केश-शृंगार छोड़ दिया हो, या (२) वह जिसके केश कुछ स्मृतियों के मतानुसार केवल दो अंगुल की लम्बाई में काटे गये हों, जैसा कि गोवध आदि के प्रायश्चित्त में किया जाता है, या (३) वह जिसका सिर मुण्डित हो चुका हो। जो भी हो, अन्य स्मृतियों ने विधवा के केशमुण्डन की चर्चा नहीं की है।
मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (३।३२५) की व्याख्या में मनु के एक कथन की चर्चा की है-"विद्वानों, राजाओं, स्त्रियों के विषय में सिर-मुण्डन की बात नहीं उठती, केवल महापातक करने या गोहत्या करने या ब्रह्मचारी द्वारा संभोग किये जाने पर ही सिर-मुण्डन की बात उठती है।" मिताक्षरा ने विधवा के लिए कहीं भी सिर-मुण्डन आवश्यक कर्म नहीं माना है।
निर्णयसिन्धु (सन् १६१२ ई० में प्रणीत) के लेखक एवं बालमट्टी (१८वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में प्रणीत) ने विधवा के मुण्डन की चर्चा की है और इन लोगों ने आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।३।१०।६) एवं मिताक्षरा (३.१७) की व्याख्या अपने ढंग से करके विधवा के मुण्डित रहने की बात कही है। किन्तु इनकी व्याख्या में बहुत खींचातानी है जो वास्तविकता को प्रकट करने में असमर्थ है।
उपर्युक्त विवेवन से हम निम्न निष्कर्षों तक पहुँचते हैं। विघवा के मुण्डन के विषय में कोई स्पष्ट वैदिक प्रमाण नहीं मिलता। गृह्य तथा धर्मसूत्र इसकी ओर संकेत नहीं करते; और न मनु एवं याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ ही ऐसा करती हैं। यदि दो-एक स्मृति-ग्रन्थों के श्लोक, जिनके अर्थ के विषय में कुछ सन्देह है, विधवा के मुण्डन की चर्चा करते हैं तो वृद्ध-हारीत के समान अन्य स्मृतियाँ इसका विरोध करती हैं। कुछ स्मृतियों ने केवल एक बार, पति की मृत्यु के उपरान्त, मुण्डन करने की बात चलायी है, कहीं मो किसी स्मृति ने आमरण मुण्डन कराने की चर्चा नहीं की है। मिताक्षरा एवं अपरार्क इस विषय में मौन हैं। लगता है, मुण्डन की प्रथा १०वीं या ११वीं शताब्दी से उदित हुई। कालान्तर में विधवाएँ यतियों के समान मानी जाने लगी, और यति लोग अपना सिर मुड़ाया करते थे, अतः विधवाएँ भी वैसा करने लगीं। उन्हें इस प्रकार असुन्दर बनाकर साध्वी रखा जाने लगा। हो सकता है, बौद्ध एवं जैन साधुनियों के उदाहरणों ने भी इस क्रूर प्रथा की ओर संकेत किया हो। हमें यह बात चुल्लवर्ग से ज्ञात होती है कि बौद्ध साधुनियाँ (भिक्षुणियाँ) सिर के केश कटा डालती थीं और नारंगी के रंग (पिच्छिल) के परिधान धारण करती दी। महाराष्ट्र में कुछ दिन पूर्व ब्राह्मण विधवाएँ लाल रंग का वस्त्र धारण करती थीं (अभी आज भी कुछ पुरानी बूढ़ियाँ मिल ही जाती हैं)। यह प्रथा बहुत प्राचीन नहीं है। मदनपारिजात (१४वीं शताब्दी) को छोड़कर कोई अन्य निबन्ध स्कन्दपुराण के कथन उद्धृत नहीं करता। यह प्रथा अब समाप्ति पर है।
रामानुजाचार्य के अनुयायी श्रीवैष्णवों के तेंगल सम्प्रदाय में शताब्दियों से विधवा का सिर-मुण्डन मना है, यद्यपि यह सम्प्रदाय अन्य बातों बे बड़ा कट्टर है। शूद्रकमलाकर के कथनानुसार गौड़ देश की विधवाएँ शिखा रखती हैं।
बहुत प्राचीन काल से यह धारणा रही है कि स्त्रियों को किसी दशा में भी मारना नहीं चाहिए। शतपथब्राह्मण (११।४।३।२) का कहना है--"लोप स्त्रियों की हत्या नहीं करते, बल्कि उनसे सारी वस्तुएँ छीन लेते हैं।"
६. देखिए सैकेड बुक्स आव वि ईस्ट (S. B. E.) जिल्ल २० (विनय), पृष्ठ ३२१। जैन साधुनियाँ अपने केश कटा डालती थीं या उन्हें नोच डालती थीं, देखिए उत्तराध्ययन २२।३० (S. B. E., जिल्ब ४५, १० ११६)।
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