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स्त्रियों के विशेषाधिकार
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गयी लिखापढ़ी के समान मानी जाती थी (देखिए नारद, ऋणादान २६, याज्ञवल्क्य २।३१ ) । उन दिनों स्त्रियाँ पढ़ी लिखी कम थीं, अतः ऐसे व्यवधान वरदान ही थे । नारायण के त्रिस्थलीसेतु नामक ग्रन्थ में बृहन्नारदीय पुराण की एक उक्ति आयी है, जिससे पता चलता है कि स्त्रियाँ, जिनका उपनयन संस्कार नहीं हुआ हो तथा शूद्र विष्णु एवं शिव की मूर्ति स्थापना नहीं कर सकते थे ( शूद्रकमलाकर पृ० ३२ ) ।
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यदि कुछ बातों में स्त्रियाँ भारी असमर्थताओं एवं अयोग्यताओं के वशीभूत मानी जाती थीं, तो कुछ विषयों में वे पुरुषों की अपेक्षा अधिक अधिकार एवं स्वत्व रखती थीं। स्त्रियों की हत्या नहीं की जा सकती थी और न वे व्यभिचार में पकड़े जाने पर त्यागी ही जा सकती थीं। मार्ग में उन्हें पहले आगे निकल जाने ( अग्रगमन) का अधिकार प्राप्त था । पतित की कन्या पतित नहीं मानी जाती थी, किन्तु पतित का पुत्र पतित माना जाता था ( वसिष्ठधर्मसूत्र १३।५१-५३, आपस्तम्बधर्मसूत्र २।६ | १३|४, याज्ञवल्क्य ३।२६१ ) । एक ही प्रकार की त्रुटि के लिए पुरुष की अपेक्षा नारी को आधा ही प्रायश्चित्त करना पड़ता था ( विष्णुधर्मसूत्र ५४ | ३ ३, देवल ३०, आदि) । चाहे स्त्रियों की जो अवस्था हो, उन्हें पति की अवस्था के अनुसार आदर मिलता था ( आपस्तम्बधर्मसूत्र १।४।१४०१८ - - पतिवयसः स्त्रियः) । वेदज्ञ ब्राह्मणों की भाँति सभी वर्णों की स्त्रियाँ ( प्रतिलोम जाति यों की स्त्रियों को छोड़कर) मी कर-मुक्त थीं (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।१०।२६।१०-११ ) । वसिष्ठधर्मसूत्र ( १९।२३ ) ने उन स्त्रियों को जो युवा या अभी जच्चा थीं, बिना कर वाली ( अकर) माना है। तीन मास की गर्भवती, वन में रहने वाले साधु लोग, संन्यासी, ब्राह्मण एवं ब्रह्मचारी घाट के कर से मुक्त थे (मनु ८|४०७ एवं विष्णु ५१ १३२ ) । गौतम ( ५।२३), याज्ञवल्क्य ( १।१०५) आदि के अनुसार बच्चों, पुत्रियों एवं बह्निों, जिनका विवाह हो गया हो, किन्तु अभी अपने माता-पिता तथा भाइयों के साथ हों, गर्भवती स्त्रियों, अविवाहित पुत्रियों, अतिथियों एवं नौकरों को घर के मालिक एवं मालिकिन से पहले खिलाना चाहिए । मनु ( ४|११४ ) एवं विष्णुधर्मसूत्र ( ६७ । ३९ ) तो कुछ और आगे बढ़ जाते हैं -- "कुल की नवविवाहित लड़कियों, अविवाहित पुत्रियों, गर्भवती नारियों को अतिथियों से भी पहले खिलाना चाहिए।" उस अभियोग का विचार, जिसमें कोई स्त्री फँसी हो, या जिसकी सुनवाई रात्रि में, या गाँव के बाहर, या घर के भीतर, या शत्रुओं के समक्ष हुई हो, पुन: होना चाहिए ( नारद, ११४३) । सामान्यतः स्त्रियों का अभियोग दिव्य ( जल, अग्नि आदि द्वारा कठिन परीक्षा) से नहीं सिद्ध किया जाता था, चाहे वह वादी हो या प्रतिवादी हो, किन्तु यदि दिव्य अनिवार्य - सा हो जाय तो तुला-दिव्य की ही व्यवस्था थी (याज्ञवल्क्य २।९८ एवं मिताक्षरा टीका) । स्त्रीधन के उत्तराधिकार में पुत्रियों को पुत्रों की अपेक्षा प्रमुखता दी गयी थी। प्रतिकूल अधिकार प्राप्ति में स्त्री का स्त्रीघन नहीं फँस सकता था ( याज्ञवल्क्य २।२५, नारद, ऋणादान, ८२-८३ ) । आचार के विषय में मन्त्रणा अवश्य ली जाती थी । आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।२।२९।१५ ) ने ऐसा मत प्रकाशित किया है कि सूत्रों में जो नियम न पाये जायँ उन्हें कुछ आचार्यों के कथनानुसार स्त्रियों एवं सभी वर्गों के पुरुषों से जान लेना चाहिए। आपस्तम्बगृह्यसूत्र, आश्वलायनगृह्यसूत्र ( १ | १४१८ ), मनु ( २।२२३) एवं वैखानस स्मार्त ( ३।२१ ) के अनुसार विवाह में शिष्टान्तर की जानकारी स्त्रियों से प्राप्त करनी चाहिए।
१०. वाल-वृद्ध स्त्रीणामर्ध प्रायश्चित्तम् । अपरार्क द्वारा व्यवन । अकरः श्रोत्रियः । सर्ववर्णानां च स्त्रियः । आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २०१०।२६।१०-११ ) ; वसिष्ठधर्मसूत्र ( १९/२३ )
अकरः
श्रोत्रियो
राजपुमाननाथप्रब्रजितबालवृद्धतरणप्रजाताः ।
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